Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी रहने वाले और मंदिरों के मालिक बने हुए यतिओं) का बड़ा जोर था, पाटन को वसाने वाला राजा वनराज चावडा को चत्यवासी यतियों से बड़ी सहाय मिली थी और तभी से यह राज्याज्ञा प्रसारित करदी गइ थी कि बाहर के आगंतुक साधु यदि इन चैत्यवासी यतियों के साथ न उतरे तो उन्हें अन्य कोई स्थान न दिया जावे, कोई न देने पावे ।. . इसी कारण से सुविहित, समाचारी एवं पूर्ण क्रियानिष्ठ साधुओं का पाटन में आवागमन कई वर्षों से बंध था। राजधानी की प्रवेशबंदी आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि को खटकी, उन्होंने गुरुवर्य श्री वर्द्धमानसूरि से विनंति कर आज्ञा लेकर आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरि के साथ पाटन में प्रवेश किया। अनेक विद्वान् शिष्य आप के साथ थे। खूब प्रयास करने के बाद चैत्यवासियोंने शास्त्रार्थ करना स्वीकार किया। राजा दुर्लभराज की अध्यक्षता स्वीकार की गइ । साध्वाचार पर राजसभा में बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ। परिणाम स्वरूप चैत्यवासियों की शिथिलता एवं पाखंड का भंडा फोड हुआ, आचार्य महाराज की विद्वत्ता, क्रिया शीलता एवं साधुचर्या से राजा बडा हर्षित व प्रभावित हुआ एवं भर दरबार में घोषित किया कि आप वर्तमान विद्वानो में सवोपरि, वादियों को परास्त करने में सच्चे एवं साध्वाचार पालन करने में अत्यंत खरे (सच्चे ) हो अतः आजसे आप को खरतर विरुद से अलंकृत करता हूं। तब से श्री जिनेश्वरसूरि की पाट परंपरावाले "खरतर" नाम से विख्यात है। आप की पाट पर (४२) नवांगी रहना, एवं मध्यस्थता करना स्वीकार किया हो । क्यों कि यह विवाद सं. १०८० में हुआ है। For Private and Personal Use Only

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