Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरु परंपरा भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद श्री सुधर्मास्वामी और बाद में अनेक प्रभावक आचार्य होते गये । यद्यपि उनके उल्लेखनीय अनेकानेक कार्य हैं पर वें तो बडे बडे ग्रन्थों में भी उल्लिखित नहीं हो सकते, यहां तो केवल खरतरगच्छ परंपरा से संबंधित पट्टावली का परिचय मात्र करवाने का उद्देश है। ३८ वें पधर ८४ गच्छों के संस्थापक आचार्य श्रीमद् उद्योतनसूरि हुए। ३९ वें पाट पर उपदेश पद टीकादि के प्रणेता आचार्य श्री वर्धमानसूरि हुए। आपके बाद खरतर बिरुद के प्राप्त करने वाले प्रभावक आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि व बुद्धिसागरसूरि हुए । __ तत्कालीन गुजरात की राजधानी पाटन थी। और सोलंकीवंशीय महान् प्रतापी विक्रमी व विद्वान् राजा दुर्लभराज उस वखत *पाटन में ही था। पाटन में चैत्यवासियों ( जिनमंदिरों में * पाठकों को यह याद दिलाकर सतर्क करना आवश्यक है किगुजरात के राजकीय इतिहास के आधार से तो यही मालूम पडता है कि महाराजा दुर्लभराज सं. १०७८ में राजा भीमदेव को अपना उत्तराधिकारी बना उसका राज्याभिषेक कर स्वयं तीर्थयात्रा को चला गया। बाद में क्या हुआ उसका प्रायः वर्णन नहीं है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि तीर्थ यात्रा में ही उसका स्वगवास हो गया हो। इस तरह का उल्लेख कहीं नहीं मिलता, अपितु अनेक पट्टावलियों में व स्वयं युगप्रधानाचाय श्री जिनदत्तसूरि रचित गुरुपारतंत्र्य नाभक स्मरण स्तोत्र में राजा दुर्लभराज का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। अतः यह मानना ठीक लगता है कि दुलभराज तीर्थयात्रा से लौट आया हो ओर बाद में अपना शेष जीवन धर्मसाधना में ही व्यतीत करता रहा हो एवं अन्य राज्यनैतिक मामलों में हस्तक्षेप न करत हुए भी आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासी यतियों के साथ का विवाद धार्मिक होने से ही उसमें उपस्थित For Private and Personal Use Only

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