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अपूर्व गुणग्राहक
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उसका भी त्याग कर दूंगा व इस अर्ध संन्यास को छोड पूरा संधेगी मुनि बन जाउंगा।
चातुर्मास पूर्ण होने पर कलकत्ता से यतिश्री बनारस पहुंचे जब श्रावकों के सामने यतिश्रीने अपने विचार रक्खे तो लोग अचंभे में रह गये। कितने यति ऐसे थे कि जो रुपयों में ही बात करते थे। महाराजश्री का त्याग अद्वितीय था। जैसे जैसे विचार किया था वैसे वैसे अपना द्रव्य व्यय करवाने लगे। श्रावकोंने चातुर्मास के लिये आग्रह किया। अतः १९२९ का चातुर्मास बनारस में ही हुआ । चातुर्मास पूर्ण होने पर आपने अयोध्याजी, सावत्थी आदि तीर्थों की यात्रा की और लखनउ पहूंचे । लखनउ में भी श्रावकोंने जब आप के विचार जाने तो भक्ति से गद् गद् हो गये । महाराजश्री कुछ दिन ठहरे। अपने द्रव्य का व्यय किया व अन्य परिग्रह की योग्य व्यवस्था की, यहां से जयपुर जाने का निर्णय कर प्रस्थान किया। दिल्ही, आगरा आदि अनेक स्थानों में होते हुए जयपुर के निकट प्रदेश में पहुंच गये ।
मविश्वास इस प्रदेश में आपने एक दफा मध्यान्ह के वाद विहार किया। सूर्य ढल रहा था। धारणानुसार अल्प दूरी निकली नहिं मंजिल तक पहुंचने में काफी रात आजाना संभव था। ऐसा करना साध्वाचार से विपरीत था। महाराजश्री कुछ विचार में पड़ गये थोडी ही दूर चलने पर एक बगीचा नजर आया। इस सुने जंगल में महाराजश्री को बगीचा देख कुछ संतोष हुआ। महा. राजश्रीने अंदर प्रवेश किया-देखा तो एक छोटा सा मकान बीच में
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