Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महती शासनन्नोति छ “री" पालते हुए श्री संघ के साथ यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त होना भी जीवन का एक महान् आनन्द है। धार्मिक कृत्यों की धूम रहती है, स्थान स्थान पर नये आदमी, नये मन्दिर, नया वातावरण भिन्न प्रकृति, विभिन्न प्राकृतिक दृश्य, संगीत आदि जीवन में स्फूर्ति भरते ही रहते हैं। श्री संघ के साथ भरूच में जिनपति श्री मुनिसुव्रत स्वामी के प्रासाद के दर्शन हुए तथा खंभात में श्री स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभु के पुनीत दर्शन हुए । जुदे जुदे गांवों के संघ-इस संघ के अपने गांव में आते ही म्वागत करते । सब साधन-सामग्री उपस्थित करते भोजन देते, मुनिराजों की भक्ति करते थे। जब संघपति श्री धर्मचंदभाइ भी तत्रस्थ संघों को स्वामीवात्सल्य दे कर भक्ति करते, मन्दिरों व अन्य जीर्ण स्थानों में योग्य दान देते रहते थे। सं. १९४९ की माघ कृ. १३ को यह संघ पालीताणा पहुंचा। श्री आनन्दजी कल्याणजी की तरफ से पूरे ठाठ के व राजकीय लवाजमे के साथ मुनिश्री के नेतृत्व में श्री संघ का भव्य स्वागत हुआ। बडे उल्लास ___ छ “री" का निम्न प्रकार है-- १ भूमि संथारी- जमीन पर संथारा-शय्या करना । • ब्रह्मचारी----स्त्री को पुरुष का, पुरुषको नारीका त्याग । ३ सचित्त परिहारी----सचित्त पदार्थों के खाने-पीने का त्याग । ४ एकल आहारी-एक ही समय भोजन करना । ५ पद चारी--पैदल चलना। ६ समकितधारी-पडिकमणकारी-अरिहंत भगवान के दर्शन--पूजन व दोनों समय-प्रातः सायं प्रतिक्रमण करना । For Private and Personal Use Only

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