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विहार-शिष्य परिवार
आदि सब चीजों को स्पष्ट किया, पर यह भावि शिष्य भी कोइ रस्ते चलता नहीं आया था, उसने सिर झुका महाराजश्री से इतना ही कहा-आपके आशीर्वाद से मैं विशुद्ध चारित्र पाल सकुंगा। तब श्री संघ के समक्ष उक्त प्रस्ताव रक्खा गया । एवं सर्व सम्मति से आशाढ़ शु १० को दीक्षा देने का तय हुआ। उस दिन खूब उत्सव हुए। शहर सजा था, वरघोड़ा निकला था,
और पूरी धूमधाम से यह महोत्सव पूरा हुआ । नूतन मुनिश्री का नाम आनंदमुनि रक्खा गया।
दूसरे ही दिवस विहार कर आप पाली पधारे । १९३७ का चातुर्मास पाली में हुआ। चातुर्मास की पूर्णाहुति के बाद आपने बीकानेर की ओर प्रस्थान किया । रास्ते में कुछ दिन नागौर भी ठहरे। बिकानेर जाते वख्त रास्ते में जोधपुर श्री संघने पूर्ण आग्रह किया था कि चातुर्मास जोधपुर में हि किया जाय। अतः फिर महाराजश्री जोधपुर पधार गये व १९३८ का चौमासा जोधपुर में किया। यहां से आपने मेवाड प्रदेश की ओर विहार किया और वहां से पहाडी मार्ग से ही आप सिरोही पहुंचे। १९३९ का चौमासा सिरोही में किया । सिरोही से अजमेर ओर वहां से व्यावर पधारे । व्यावर श्री संघने आप को स्थिरता करने का आग्रह किया। जोधपुरनिवासी श्री जेठमलजी महाराजश्री के पास आये और विनंति करने लगे कि गुरुदेव अपना शिष्य बनालें। श्री जेठमलजी पढ़े लिखे व्यक्ति थे। धार्मिक ज्ञान भी पर्याप्त था-अध्ययन अध्यापन का कार्य भी किथा था तप भी अनेक प्रकार के कर चुके थे। योग्य गुरु की तलाश में थे और मुनि श्री मोहनलालजी के संबंध में जब सुना तो दौडे आये।
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