________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०
मोहन- संजीवनी
हिन्द में आपकी पादुकाएं पूजी जाती हैं, जो स्थान दादावाडियों के नाम से प्रसिद्ध है ।
श्री जिनदत्तसूरि की पाट पर आते हैं मणिधारी दादा श्री जिनचंद्रसूरि । छोटी उम्र में ही आपका प्रभाव यशस्वी बन चूका था । पावापुरीजी के शिलालेख एवं कइ पट्टावलियों से मालूम होता है कि महातियाण जाति के कि जिस जातिने पूर्वदेशीय श्री पावापुरीजी, चंपापुरीजी, राजगिरीजी आदि अनेक तीर्थस्थानों पर मन्दिरोंका जिर्णोद्धार करवाया है, उसके स्थापक आप ही हैं । आपका प्रभावशाली नाम अमर रखने के हेतु खरतरगच्छ में प्रति चतुर्थ पाट पर जो आचार्य होते हैं उनका नाम श्री जिनचंद्रसूरि रक्खा जाता है ।
क्रमशः ५० वीं पाट पर दादा श्री जिनकुशलसूरि हुए । आपने भी ५० हजार विधर्मियों को जैन धर्मी बनाए। आपके समय में खरतरगच्छ में ७०० साधु ब २४०० साध्वियां थी । सबके सब आपकी आज्ञा में विचरते थे । मुनिश्री धर्मकलशजीने अपने “ श्री जिनकुशलसूरि रास " में भी इस बात का उल्लेख किया है उससे उस समय आपका कितना प्रभाव था यह सहज ही समझ में आ जाता है। आपकी चरणपादुकायें भी बडे दादा साहब के साथ ही हर स्थान पर पूजी जाती हैं । आपके पश्चात १७ वीं शताब्दि के प्रारंभ काल तक अनेक प्रभावक व विद्वान् आचार्य होते रहे ।
संवत् १६१२ की भाद्रपद शु. ९ को ६१ वें पाट पर श्री जिनचंद्रसूरि महाराज बिराजे । ग्रामानुग्राम विहार करते आप संवत् १६२७ में नगर आगरा पधारे। एक मास के मास कल्प
For Private and Personal Use Only