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विहार-शिष्य परिवार
तुरंत विहार कर श्री जसमुनिजी गुरु सेवा में फलोधी पहुंच गये।
अपने शिष्य-परिवार के साथ फलोधी से विहार कर मुनिश्री मोहनलालजी जैसलमेर पधारे । जसलमेर महातीर्थ है। यहां के किले के अंदर बने हुए मन्दिर इस बात के प्रमाण है कि राज्य पर जेनोंका बडा प्रभाव था। यहां का ग्रन्थ भंडार तो सारे भारत वर्ष में अपनी जोड का एक ही है। यहां जितने जिनविम्ब है, सारे देश में कहीं नहीं है। महाराजश्रीने श्री चिन्ता मणि पार्श्वनाथ आदि सहस्रों जिनप्रतिमाओं के दर्शन किये, ब्रह्मसर में पूज्यतम गुरुदेव दादाश्री जिनकुशलसूरि की प्रभावक पादु. काओं की वन्दना की, लोदवा में श्रेष्ठीवर्य श्री थीरुशाह भंशाली निर्मापित मंदिर में श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की अलौकिक चमत्कारिक प्रतिमा के दर्शन किये । कहते हैं कि इस प्रतिमाजी को निर्मित करने वाले कुशल कारीगरने अपनी सारी उमर में यह एक ही प्रतिमाजी घडी थी । महाराजश्री इस प्रभावक क्षेत्र में थोडे दिन स्थिरता कर पुनः फलोधी पधारे व आगे पाली, वरकाणा, आदि में यात्रा कर आबूजी पधारे। आबू के महान् देवालयों में वंदना कर अचलगढ के क्षेत्र में पधारे। यहां भी आपने सभी मन्दिरों के दर्शन किये व खराडी उतरे। खराड़ी में आपने एक व्यक्तिको मुनिवेष में देखा। सहज उत्कंठा से उसे पृछा तो बताया कि “मैं पारख गोत्रीय हुँ, कच्छ-मांडवी का निवासी हूं। वैराग्य हो गया था तो ऐसे ही साधु वेषके कपडे पहन लिये हैं। महाराजश्रीने उसे पात्र समझ उपदेश दिया और सही साधु मार्ग का प्रदर्शन किया। उसने भी सोचा कि मैं अनि
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