Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 75
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुओं को अंतिम शिक्षा महानुभावो ! तुम को खबर है कि मेरे गुरु दादागुरु. वगैरह सभी खरतरगच्छ के थे, अतः मैं खरतरगच्छ का ही हुँ । परम गुरुदेव श्रीमान् दादासाहब को मैं अच्छी तरह मानता हूं इतना ही नहिं मेरा दृढ विश्वास है कि आज तक मैं जो कुछ भी शासन सेवा कर सका हुं वह सब उन गुरुदेव का ही महान् प्रभाव है । मैं जब तक मारवाड में विचरा, सब समाचारी खरतरगच्छ की ही करता था, परंतु मारवाड का विचरना छूटा और केवल गुजरात में ही विचरना' हुआ तब से वह क्रिया अमुक अंश में मुझ से छूट गयि । इस देश में इसी संघ की बहुलता का होना और मेरे प्रकृति की सरलता ही इस में खास कारण है । यों तो इस क्रिया में सदा के लिये कोइ खास फरक नहीं है । चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवनादि कोइ भी बोलने में किसी तरह का शास्त्रीय विरोध नहीं है । जैसे अपने पाक्षिकादि प्रतिक्रमण करते समय चैत्यवंदन में जय तिहुअण कहते हैं तो ये तपागच्छीय सक लार्हत् बोलते हैं । परंतु विचारने की जरूरत है कि जिस वख्त तक जय तिहुअण व सकलाईत् नहीं बने थे चैत्यवंदन तो कोइ न कोइ करते ही थे, परंतु वह था इन दोनों से भिन्न । इस से यह समझा जाता है कि अपने अपने गच्छ में चैत्यवंदन, स्तुति, स्तोत्रादि कहते चाहे जो हों परंतु गच्छ परंपरा के सिवाय शास्त्रीय विधान ऐसा कोई नहीं है कि चत्यवंदन, स्तुति, स्नोत्रादि अमुक ही कहना । इस लिये इन बातों का जो फरक है वह वस्तुतः फरक नहीं कहा जा सकता, किंतु फरक वही कहा जाता है कि जिस किसी भी कथन या वर्तन में शास्त्राज्ञा से प्रतिकूलता हो। तपगच्छ खरतरगच्छ में भी ऐसे तो शास्त्रीय कइ बातों का फरक For Private and Personal Use Only

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