Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ मोहन- संजीवनी अनेकों आया करते थे, उनमें से एक गु० श्रावक जो धर्मनिष्ठ होने के साध कुछ धर्मशास्त्र का अभ्यासी था, वह भी हमेशां नियमित व्या० श्रवण को आता था, परंतु कभी भी गुरुजी को ' अब्भुट्टिओ' खमाके वंदन नहीं करता, एक दिन किसी गुरुभक्तने उसे कहा- क्यों जी ! तुम गुरूजी म० को वंदन नहीं करते ? | , गु० भाइने कहा — वंदन के योग्य हो तो न । गुरु भक्त – कैसे ? । गु० भाइ — पंचमहाव्रतों का यथावत्पालन करने वाले ही वंदन के योग्य होते हैं, इन गुरुजी में इन सब बातों का अभाव है । इसी कारण मैं वंदन नहीं करता । गुरुभक्त को यह बात रुचिकर न हुइ, बस फिर क्या कहना था ? उसने यह सारी ही हकीकत चरित्रनायक से निवेदन करी, सुनकर चरित्रनायकने फरमाया - महानुभाव ! उस का कहना बिल्कुल ठीक है, हमारे पास केवल वेष मात्र है, परंतु वेष के योग्य हमारे में सम्हालें, श्रावक बडा नहीं है, अतः हमको तुमने इस बाबत में समझदार है, उसने वर्तन जो कि शास्त्रों में वर्णित है, चाहिये - अपनी कर्त्तव्यदिशा को जरा भी नाराज न होना, वह यह बडी ही अच्छी शिक्षाकी बात कही है, इस प्रकार अपनी भूल को सुधारने का, नहीं कि कहनें वाले के प्रति द्वेष करने का लक्ष्य रक्खा, बस फिर क्या था ? अपनी भावना में खूब ही स्थिर हो गये और दूसरे ही दिन प्रातः काल जब आपश्री जिनमंदिर दर्शनार्थ पधारे तो वहीं श्री संभवनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष प्रतिज्ञा की कि अब मैं कोई नया परिग्रह नहीं लूंगा, जो है For Private and Personal Use Only

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