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म्वप्न सिद्धि
दर्शनार्थ जाते, वार्तालाप करते, पूछ-परछ करते, एवं आने-जानेवालों पर उनका प्रभाव देखते । उनका हृदय कहने लगा-ये ही महापुरुष है, जिन्हें मोहन सोंपा जा सकता है। नौ-दश वर्ष का मोहन भी यत्तिजी के प्रति कम आकर्षित नहीं हुआ था। उपाश्रय में जो भीड लगी रहती थी-महाराजश्री को वंदना करने आते थे, भोजन पान के लिये विनंति करने आते थे। महाराज के पास अपने दुःख दर्द मिटाने की आशा से आते थे। धर्मकार्य के लिये आते थे उन सबने मोहन पर भी गहरा प्रभाव डाला था। एक दिन पंडित बादरमलजीनें भी भारी हृदय से अपने पुत्र को गले लगा पूछ हि लिया-" बेटा ! क्या तूं इन महात्मा के पास रह जायगा ?" बालक मोहनलाल तो तैयार था ही। उसे अन्य समझावट या प्रलोभन की आवश्यक्ता नहीं थी उसने तुरंत ही अपनी सम्मति देदी। ___एक दिन अवसर देख पंडित बादरमलजी मोहन को साथ ले महाराजश्री के पास पहुंचे। योग्य अवसर देख उन्होंने महाराजश्री से विनंती की-" महाराज ! आप से एक अर्ज हैं।"
यतिजी-" निस्संकोच हो कहिये, मेरा तो यही काम है कि हर प्राणी की यथाशक्ति सेवा करुं !"
पंडितजी-नहीं गुरुजी, ऐसा मेरा कोई कार्य नहीं है। आप के पास आते मुझे दिन निकल गये-आपकी विद्वत्ता, सेवाभाव, क्रिया शीलता, धर्मवृत्ति ओर कीर्ति सबसे मुझे परिचय हुआ है। मैं चाहता हुं-मेरा यह पुत्र आपकी सेवा में रहे। ____ यतिजो-हम तो साधु हैं। हमें चीज दी जा सकती है पुनः लेना आपके अधिकार की बात नहीं होगी।
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