Book Title: Mohan Sanjivani
Author(s): Rupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी भी था कि जिसने आचार्य महाराज से भक्तिपूर्वक यह निवेदन कर रक्खा था कि " भगवन , आपको कोइ योग्य शिष्य मिले तो आप मेरे पास अवश्य भेजदें, ताकि मैं उसे ज्योतिष शास्त्र में भी पारंगत कर दूं! श्री जिनवल्लभ यद्यपि अभी तक आप के शिष्य नहीं थे पर उन की योग्यता से प्रसन्न हो उन्हें उक्त ज्योतिषी के पास भेज दिया। उन से भी विद्या ग्रहण कर श्री जिनवल्लम फिर लौट आये ओर अभ्यास पूर्ण हो जाने से अपने गुरु के पास जानेकी आज्ञा मांगी। श्री अभयदेवसूरिने अनुमति देते हुए फरमाया-"शास्त्रकारों की आज्ञा है, कि "ज्ञानस्य फलं विरति" ज्ञान संपादन करने का अर्थ-फल विरतिभाव, त्यागभाव स्वीकार करना है, तुमने जैन आगमों का संपूर्ण अध्ययन किया है अतः शास्त्रों में जैसा श्रमण धर्म का निर्देश किया गया है वैसा यथाशक्ति पालन करना ।" ___ श्री जिनवल्लभ में विनयावनत हो कर कहा, आचार्य भगवन् ! मेरी हार्दिक भावना यही है कि गुरुजी के पास जाकर, उन्हें निवेदन कर आज्ञा ले पुनः आपके पास लौट आई व आप से चारित्रोपसंपद लेकर आपके चरणों में रह आत्मकल्याण करूं। तत्पश्चात आप पाटन से रवाना हो अपने गुरुजी के पास पहुंचे । उनका विनय कर आत्म निवेदन किया । अनुमति मिल गइ । आप तुरत ही लौट आये। शुभ मुहूर्तमें आपने आचार्य महाराज के पास शुद्ध चारित्रोपसंपदा ली एवं शिष्य बन गये। यही बात आपने स्वरचित " अष्ट सप्ततिका" में ईस प्रकार लिखी हैं For Private and Personal Use Only

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