Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 01
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala

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Page 26
________________ ॥ अर्हम् ॥ तपागच्छाधिराजश्रीलक्ष्मीसागरसूरि विरचितं श्रीपुण्डरीकगणधरस्तवनम् । श्रीशत्रुञ्जयशैलराजशिखरालङ्कारचूडामणिम् भव्यश्रेणिसमीहितार्थनिकरत्यागैकचिन्तामाणम्। नम्राखण्डलमौलिरत्नकिरणैर्नीराजितांहिद्वयम् । संस्तोष्ये प्रथमं गणाधिपमहं श्रीपुण्डरीकाह्वयम् ॥१॥ ज्ञानानन्त्यमयी किमुत्सवमयी किंसौख्यसंपन्मयी किंवा सान्द्रसुधामयी शुभमयी सौभाग्यलक्ष्मीमयी इत्थंकारमुदारमूर्तिममलामालोक्य चेतस्विनश्वेतःस्वं परितन्वते स जयतात् श्रीपुण्डरीको गुरुः॥२॥ स श्रीमान् गुरुपुङ्गवः स्थवयताहः शाश्वतीः संपदो यत्पादाम्बुरुहे सुपर्वमाणभिर्भेजे ह्युपादानता । नेत्थं चेत् कथमन्यथा त्रिभुवनाऽभीष्टार्थसार्थानिदम दत्ते तेच न दृगपथे कथममी जग्मुर्जगत्प्राणिनाम्॥३॥

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