Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 01
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala

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Page 44
________________ ४२ श्रीभावप्रभसूरिविरचितम् तस्यां रतो भवति मङ्क्षु नरो हि हित्वा चित्रं विभो यदसिकर्म विपाकशून्यः॥ २९ ॥ सहितं प्रवरपुस्तकमस्तपापं पुण्योपकारि परमं परमैः प्रपूज्यम् । संभालनादिकरणाच् शिवदं त्वयोक्तं ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः॥३०॥ दानं दया दमनदर्शनदेवसेवा दोषापहार इह षट् प्रवरा दकाराः । तैः सेवितैर्दुरितराक्षस आत्तलोको ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥ सैनेयसाधुवरसङ्घकसार्वसद्म सैद्धान्तिका इति सुसकारवर्गः । येनादृतो भवकृपीटनिधौ निरस्तं तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारि कृत्यम् ॥ ३२ ॥ अर्हन्त अर्च्य अशरीर अहिंसकश्व अ अकारनिकरोऽकृतसन्धिकर्मा । मर्त्योऽश्रयद्यमनिशं परवत् किमेष

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