Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 01
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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श्रीभावप्रभसूरिविरचितम्
तस्यां रतो भवति मङ्क्षु नरो हि हित्वा चित्रं विभो यदसिकर्म विपाकशून्यः॥ २९ ॥ सहितं प्रवरपुस्तकमस्तपापं
पुण्योपकारि परमं परमैः प्रपूज्यम् । संभालनादिकरणाच् शिवदं त्वयोक्तं
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः॥३०॥ दानं दया दमनदर्शनदेवसेवा
दोषापहार इह षट् प्रवरा दकाराः । तैः सेवितैर्दुरितराक्षस आत्तलोको
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥
सैनेयसाधुवरसङ्घकसार्वसद्म
सैद्धान्तिका इति सुसकारवर्गः । येनादृतो भवकृपीटनिधौ निरस्तं
तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारि कृत्यम् ॥ ३२ ॥ अर्हन्त अर्च्य अशरीर अहिंसकश्व
अ अकारनिकरोऽकृतसन्धिकर्मा । मर्त्योऽश्रयद्यमनिशं परवत् किमेष

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