Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 01
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala
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श्रीजैनधर्मवरसंस्तवनम् ।
मुद्राप्यमुद्रसुषमा वनितोज्झितोऽङ्कः। तं देवमेव वदतीति हिताय नाके ___ मन्ये नदन्नभिनभः सुर दुन्दुभिस्ते ॥२५॥ व्याख्यानसद्मनि वृषो गदितो जिनेन
क्षेत्रे निजेन निहिते निहितोऽभिषिक्तः । अन्यत्र मोहचरटो विधिविष्णुरुद्र___ व्याजाविधाधृततनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६॥ क्षेत्राणि कानि तव धर्मनृपस्य सप्त
चैत्यादिकानि भरतः पुनराह तातम् । सायं च तैः परिचितैर्हि पुराऽधुना वं __ शालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥ जैनो यती जिनजनो जिनसद्म जैनं
ज्ञानं जिनो जगति पश्च शुभा जकाराः। नाभेयभूभणति तेष्वनधे सदा किं त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८ ॥ तत्त्वानि तीर्थकरतीर्थतपोधनाश्च
तथ्यं च तात्त्विकतपः खलु षट्तकारी।

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