Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 01
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala

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Page 37
________________ ॥ अर्हम् ॥ श्रीभावप्रभसूरिविरचितं श्रीजैनधर्मवरसंस्तवनम् । कल्याणमन्दिरमिमं कुरु दानमुख्यं धर्म चतुर्विधमनश्वरसौख्यहेतुम् । सम्यक्त्वभूषिततमं भवभृद्भवाब्धौ पोतायमानमभिनम्यजिनेश्वरस्य ॥ १ ॥ हिंसादिदोषरहितं सहितं शमाद्यै घतिक्षयान्निगदितं महितं महेन्द्रैः । स्वर्गापवर्गफलितं कलितं विवेकै स्तस्याहमेव किल संस्तवनं करिष्ये ॥ २ ॥ ॥ युग्मम् ॥ दानं द्विधाभयसुपात्रगतं सुपोष्यम् मुक्त्यै कृपादिपदतस्त्रिविधं तु भुक्त्यै । जैनोऽत्र वेत्ति न परो नहि नव्यनेत्रो रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥३॥

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