Book Title: Jain Stotra Sangraha Part 01
Author(s): Yashovijay Jain Pathshala
Publisher: Yashovijay Jain Pathshala

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Page 34
________________ साधारणजिनस्तवनम् । धर्मो भवद्दर्शितधर्म एव। इति स्वरूपं परिभाव्य तस्मा नोपक्षणीयो भवति स्वभृत्यः ॥ २२ ॥ जिताजिताशेषसुरासुराद्याः कामादयः कामममी वयेश। लां प्रत्यशक्तास्तव सेवकं तु निम्नन्ति ही सांपरुषं रुपैव ॥ ३ ॥ सामर्थ्यमेतद्भवतोऽस्ति सिद्धि सत्त्वानशेषानपि नेतुमीश । क्रियाविहीनं भवदहिलीनम् दीनं न किं रक्षसि मां शरण्य ॥ २४ ॥ त्वत्पादपद्मद्वितयं जिनेन्द्र - स्फुरत्यजस्रं हृदि यस्य पुंसः। विश्वत्रयीश्रीरपि नूनमेति तत्राश्रयार्थ सहचारिणीव ॥ २५ ॥ - अहं प्रभो निर्गुणचक्रवर्ती क्रूरोदुरात्मा हतकः सपाप्मा ।

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