Book Title: Ashtak Prakaran Author(s): Haribhadrasuri, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 8
________________ श्री अष्टक प्रकरण के लिए भी शुद्धि नहीं कर सकता । (इसीलिए गाथा में प्रायः शब्द का प्रयोग किया है । अर्थात् यह स्नान बाह्य शुद्धि भी करता ही है यह कोई नियम नहीं है । यदि बाह्य शुद्धि भी करता है तो क्षणभर के लिए) यह स्नान भावस्नान का कारण नहीं बनने से अप्रधान - गौण द्रव्य स्नान I कृत्वेदं यो विधानेन, देवताऽतिथि-पूजनम् । करोति मलीनारम्भी, तस्यैतदपि शोभनम् ॥३॥ अर्थ - जो गृहस्थ विधिपूर्वक द्रव्यस्नान करके देवता अतिथि वगैरह का पूजन करता है, उसका यह द्रव्यस्नान भी प्रशस्त है । यह द्रव्यस्नान भावस्नान का कारण होने से प्रधान (मुख्य) द्रव्यस्नान है । इसीसे यह प्रधान द्रव्यस्नान भी प्रशस्त है । भावविशुद्धिनिमित्तत्वात्, तथानुभवसिद्धितः । कथञ्चिद्दोषभावेऽपि तदन्यगुणभावतः ॥४॥ अर्थ - कारण कि यह द्रव्यस्नान भावशुद्धि का कारण होता है। यह हकीकत साधकों को अनुभवसिद्ध है । यद्यपि इस स्नान में अप्काय आदि जीवों की विराधना होने से थोड़ा दोष है, फिर भी अन्यसम्यग्दर्शन आदि का शुद्धि रूप गुण भी है। दोष अल्प हैं, जबकि गुण अधिक हैं। जिस प्रवृत्ति से चार आने खोकर रूपया मिलता हो, ऐसी प्रवृत्ति भी प्रशस्त हैं । इस विषय में कौन बुद्धिशाली मना कर सकेगा ?Page Navigation
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