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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
अथानन्तरमध्ययनलक्षणवि-
'अर्थ' अर्थात् पहले कहे हुए
ग्रन्थ- अध्ययनरूप विधा पहले कहे हुए
धानस्य, अतो यतोऽत्यर्थं ग्रन्थ- 'अतः'-क्योंकि अन्यके अध्ययनमें
अत्यन्त आसक्त की हुई वुद्धिको भाविता बुद्धिर्न शक्यते सहसार्थ
सहसा अर्थज्ञान [ को ग्रहण करने] ' ज्ञानविषयेऽवतारयितुमित्यतः
| में प्रवृत्त नहीं किया जा सकता,
इसलिये हम ग्रन्यकी समीपवर्तिनी संहिताया उपनिपदंसंहिताविपयं संहितोपनिषद् अर्थात् संहिता
सम्बन्धिनी दृष्टिकी पाँच अधिकरण दशनामत्यतद्ग्रन्थसानकृष्टाम -आश्रय अर्थात् ज्ञानके विषयोंमें THA शिक- व्याख्या करेंगे । [ तात्पर्य यह कि
वर्णोके विषयमें पाँच प्रकारके प्वाश्रयेषु ज्ञानविपयेष्वित्यर्थः।। ज्ञान बतलावेंगे]।
. कानि तानीत्याह-अधिलोकं वे पाँच अधिकरण कौन-से हैं ? - लोकेष्वधियदर्शनं तदधिलोकम् । सो बतलाते हैं-'अधिलोक'-जो तथाधिज्यौतिपमधिविद्यमधिप्रज
दर्शन लोकविपयक हो उसे अधिलोक
कहते हैं। इसी प्रकार अधिज्यौतिप, मध्यात्ममिति । ता एताः पञ्च- | अधिविद्य, अधिग्रज और अध्यात्म विषया उपनिषदो लोकादिमहा- भी समझने चाहिये । ये पञ्चविपयवस्तुविषयत्वात्संहिताविषयत्वाच । सम्बन्धिनी उपनिषदें लोकादि महामहत्यश्च ताः संहिताश्च महा
वस्तुविपयिणी और संहितासम्बन्धिनी,
हैं; इसलिये वेदवेत्तालोग इन्हें महती संहिता इत्याचक्षते कथयन्ति
संहिता अर्थात् 'महासंहिता' वेदविदः।
कहकर पुकारते हैं। अथ तासां . यथोपन्यस्ताना- अब ऊपर बतलायी हुई उन(पाँच मधिलोकं दर्शनमुच्यते । दर्शन- प्रकारकी उपासनाओं ) मेंसे पहले
| अधिलोक-दृष्टि बतलायी जाती है।