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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्लीर
एतस्मादित्युक्तार्थम् । आनन्द-! इत्यादि वाक्यका अर्थ पहले कहा
जा चुका है। 'आनन्दमय' इन मय इति कार्यात्मप्रतीतिरधि- शब्दमे कार्यात्माकी प्रतीति होती कारान्मयटशब्दाच । अन्नादि- है, क्योंकि यहां उसीका अधिकार
' (प्रस) है और आनन्दके साथ मया हि कार्यात्मानो भौतिका : 'मयट् शब्दका प्रयोग किया गया
है । यहाँ अन्नमय आदि भौतिक हायता । वदावकारपतित कार्यात्माओंका अधिकार है। उन्हीके श्वायमानन्दमयः, मयट चात्र वि- अन्तर्गत यह आनन्दमय भी है।
'मयट् प्रत्यय भी यहाँ विकारके कारार्थ दृष्टो यथान्नमय इत्यत्र । अर्थमें देखा गया है। जैसा कि तसात्कार्यात्मानन्दमयः प्रत्ये
'अन्नमय' इस शब्दमें है। अतः
आनन्दमय कार्यात्मा है-ऐसा तव्यः ।
जानना चाहिये। संक्रमणाच; आनन्दमयमा- संक्रमणके कारण भी यही बात
सिद्ध होती है । 'वह आनन्दमय त्मानमुपसंक्रामतीति वक्ष्यति। आत्माके प्रति संक्रमण करता है
[ अर्थात् आनन्दमय आत्माको प्राप्त कार्यात्मनांच संक्रमणमनात्मनां
होता है ]' ऐसा आगे ( अष्टम अनुवाकमें ) कहेंगे । अन्नमयादि
अनात्मा कार्यात्माओंका ही संक्रमण दृष्टम् । संक्रमणकर्मत्वेन चा- होता देखा गया है । और संक्रमणके
कर्मरूपसे आनन्दमय आत्माका नन्दमय आत्मा श्रूयते। यथान्न- | श्रवण होता है, जैसे कि 'यह
अन्नमय आत्माके प्रति संक्रमण मयमात्मानमुपसंक्रामतीति । न (गमन ) करता है। [इस वाक्यमें
देखा जाता है ] । स्वयं आत्माका चात्मन एवोपसंक्रमणम् । अधि- ही संक्रमण होना सम्भव है नहीं,
क्योंकि इससे उस प्रसंगमें विरोध कारविरोधादसंभवाच । न ह्या- आता है और ऐसा होना सम्भव
| भी नहीं है। आत्माका आत्माको