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१६०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
मात्माकामयत बहु स्यामिति । स कहा गया था-'आत्माने कामना की
कि मैं बहुत हो जाऊँ' । वह अपनी यथाकामं चाकाशादिकार्य सत्य
कामनाके अनुसार सत्-त्यत् आदि दादिलक्षणं दृष्ट्वा तदनु प्रविश्य लक्षणोंवाले आकाशादि कार्यवर्गको
रचकर उसमें अनुप्रविष्ट हो द्रष्टा, पश्यशृण्वन्मन्वानो विजानन् श्रोता, मन्ता और विज्ञातारूपसे वह्वभवत्तसाचदेवेदमाकाशादि
बहुत हो गया । अतः आकाशादि
| के कारण, कार्यवर्गमें स्थित, कारणं कार्यस्थं परमे व्योमन् परमाकाशके भीतर बुद्धिरूप गुहामें
छिपे हुए और उसके कर्ता-भोक्तादिहृदयगुहायांनिहितं तत्प्रत्ययाव
| रूप जो प्रत्ययावभास हैं उनके द्वारा भासविशेषेणोपलभ्यमानसस्ति (विशेषरूपसे उपलब्ध होनेवाले उस
ब्रह्मको ही 'वह है' इस प्रकार जानेइत्येवं विजानीयादित्युक्तं भवति। ऐसा कहा गया ।
तदेतसिन्नर्थे ब्राह्मणोक्त एप उस इस ब्राह्मणोक्त अर्थमें ही श्लोको मन्त्रो भवति । यथा यह श्लोक यानी मन्त्र है। जिस
प्रकार पूर्वोक्त पाँच पर्यायोंमें अन्नमय पूर्वेषु अन्नमयाद्यात्मप्रकाशकाः | आदि कोशोंके प्रकाशक श्लोक थे पञ्चखप्येवं सर्वान्तरतमात्मास्ति- उसी प्रकार सबकी अपेक्षा आन्तरतम
आत्माके अस्तित्वको उसके कार्यद्वारा त्वप्रकाशकोऽपि मन्त्रः कार्य
प्रकाशित करनेवाला भी यह मन्त्र द्वारेण भवति ॥१॥ है ॥१॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां पष्ठोऽनुवाकः ॥ ६॥ .