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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली २
सामान्यं हि ब्रह्माकाशादि- आकाशादिका कारण होनसे
ब्रह्म विद्वान् और अविद्वान् दोनोंविद्वदविद्वद्भेदेन कारणत्वाद्विदुपोऽ
हीके लिये समान है । इससे ब्रह्मप्राप्तावाक्षेपः विदुपश्च । तसाद । अविद्वानको भी ब्रह्मकी प्राप्ति होती विदुपोऽपि महाप्राप्तिराशयते- है-ऐसी आशंका की जाती है-- -
क्या कोई अविद्वान् पुरुष भी इस उत अपि अविद्वानमुं लोकं
शरीरको छोड़नेके अनन्तर इस लोक परमात्मानमितः प्रेत्य कश्चन, अर्थात् परमात्माको प्राप्त हो जाता चनशब्दोऽप्यर्थे, अविद्वानपि है ? 'कश्चन' में 'चन' शब्द 'अपि
(भी) के अर्थमें है । 'अथवा गच्छतिप्राप्नोति किंवा न गच्छ- नहीं होता?' यह इसके साथ तीति द्वितीयोऽपि प्रश्नो द्रष्ट- दूसरा प्रश्न भी समझना चाहिये,
क्योंकि यहाँ 'अनुप्रश्नाः' ऐसा बहुव्योऽनुशना इति बहुवचनात् । वचनका प्रयोग किया गया है ।।
विद्वांसं प्रत्यन्यौ प्रश्नौ। यद्य- अन्य दो प्रश्न विद्वान्के विषयमें विद्वान्सामान्य कारणमपि ब्रह्म हैं-ब्रह्म सबका साधारण कारण है, न गच्छति ततो विदुपोऽपि ।
तब भी यदि अविद्वान् उसे प्राप्त
नहीं होता तो विद्वान्के भी ब्रह्मको ब्रह्मागमनमाशझ्यते । अतस्तं प्राप्त न होनेकी आशंका होती है; प्रति प्रश्न आहो विद्वानिति । अतः उसके उद्देश्यसे पूछा जाता उकारं च वक्ष्यमाणमधस्तादप- है-'क्या विद्वान् भी' आदि । -.
| [ मूल मन्त्रमें ] आगे कहे जानेवाले कृष्य तकारं च पूर्व- | 'उ' को आगेसे खींचकर और सादुतशब्दाव्यासज्याहो इत्ये- पूर्वोक्त 'उत' शब्दसे उसमें 'त' तसात्पूर्वमुतशब्दं
| जोड़कर 'आहो' इस शब्दके पहले
संयोज्य 'उत' शब्द जोड़कर 'उताहो विद्वान्' -- पृच्छति-उताहो विद्वानिति । इत्यादि प्रकारसे पूछता है-क्या