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अनु० ११]
शाङ्करभाष्यार्थ
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त्येवमादीन्यपि कर्माणीतराश्रम- | भी इतर आश्रमोंके लिये प्रसिद्ध ही
हैं। वे तथा ध्यान-धारणादिरूप प्रसिद्धानि विद्योत्पत्तौ साधक
विधात्पत्ता साधक कर्म [ हिंसा आदि दोपोंसे ] तमान्यसंकीर्णत्वाद्विद्यन्ते ध्यान- असंकीर्ण होनेके कारण ज्ञानकी धारणादिलक्षणानि च । वक्ष्यति । उत्पत्ति, सर्वोत्तम साधन हैं। आगे
(भृगु० २।५ में) यह कहेंगे च-"तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख" भी कि "तपके द्वारा ब्रह्मको जानने(तै० उ० ३।२-५) इति । की इच्छा कर"।
जन्मान्तरकृतकर्मभ्यश्च प्राग-| जन्मान्तरमें किये हुए कोंसे तो शानप्राशी पिगार्हस्थ्याद्विद्यो- | गृहस्थाश्रम स्वीकार करनेसे पूर्व भी गार्हस्थ्यस्य त्पत्तिसंभवात्कर्मा-ज्ञानकी उत्पत्ति होना सम्भव है। आनर्धक्यम् थत्वाच्च गार्हस्थ्य
तथा गृहस्थाश्रमकी स्वीकृति केवल
कमोंके ही लिये की जाती है । । प्रतिपत्तेः कर्मसाध्यायां च |
अतः कर्मसाध्य ज्ञानकी प्राप्ति हो विद्यायां सत्यां गार्हस्थ्यप्रति-जानेपर तो गृहस्थाश्रमकी स्वीकृति पत्तिरनर्थिकैव।
भी व्यर्थ ही है। लोकार्थत्वाच्च पुत्रादीनाम् / इसके सिवा पुत्रादि साधन तो
लोकोंकी प्राप्तिके लिये हैं। पुत्रादि पुत्रादिसाध्येभ्यश्चायं लोक पित
साधनोंसे सिद्ध होनेवाले उन इहलोको देवलोक इत्येतेभ्यो व्या
लोक, पितृलोक एवं देवलोकआदि
| से जिसकी कामना निवृत्त हो गयी वृत्तकामस्य नित्यसिद्धात्मलोक- है, नित्यसिद्ध आत्माका साक्षात्कार
करनेवाले एवं कर्नामें कोई प्रयोजन दर्शिनः कर्मणि प्रयोजनमपश्यतः न देखनेवाले उस ब्रह्मवेत्ताकी
कोंमें कैसे प्रवृत्ति हो सकती । कथं प्रवृत्तिरुपपद्यते । प्रतिपन्न
है ? जिसने गृहस्थाश्रम खीकार गार्हस्थ्यस्यापि विद्योत्पत्तौ विद्या- कर लिया है उसे भी, जब ज्ञानकी