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दशम अनुकाक
विशझुका वेदानुवचन अहं वृक्षस्य रेरिवेति साध्या- 'अहं वृक्षस्य रेरिवा' आदि
मन्त्राम्नाय खाध्याय (जप) के यार्थो मन्त्रानायः । स्वाध्यायश्च लिये है। तथा स्वाध्याय विद्या विद्योत्पत्तये । प्रकरणात । (ज्ञान ) की उत्पत्ति के लिये बतलाया
गया है। यह प्रकरणसे ज्ञात होता विद्यार्थ हीदं प्रकरणम् । न है, क्योंकि यह प्रकरण विद्याके
लिये ही है; इसके सिवा उसका चान्यार्थत्वमवगम्यते । स्वाध्या- कोई और प्रयोजन नहीं जान पड़ता, येन च विशुद्धसत्वस्य विद्योत्प
क्योंकि खाध्यायके द्वारा जिसका
चित्त शुद्ध हो गया है उसीको त्तिरवकल्प्यते । | विद्याकी उत्पत्ति होना सम्भव है।
अहं वृक्षस्य रेरिवा । कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव । ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि । द्रविणसवर्चसम् । सुमेधा अमृतोक्षितः । इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ॥१॥ __ मैं [ अन्तर्यामीरूपसे उच्छेदरूप संसार-] वृक्षका प्रेरक हूँ। मेरी कोर्ति पर्वतशिखरके समान उच्च है। ऊर्ध्वपवित्र (परमात्मारूप कारणवाला) हूँ । अन्नवान् सूर्यमें जिस प्रकार अमृत है उसी प्रकार मैं भी शुद्ध अमृतमय हूँ। मैं प्रकाशमान [ आत्मतत्त्वरूप ] धन, सुमेधा (सुन्दर मेघावाला ) और अमरणधर्मा तथा अक्षित ( अव्यय ) हूँ, अथवा अमृतसे सिक्त ( भीगा हुआ ) हूँ-यह त्रिशङ्कु ऋपिका वेदानुवचन है ॥१॥