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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ चल्ली २
ब्राह्मणा बाह्यरसलाभादिव सा- भी बाह्य रसके लाभसे आनन्दित
होनेके समान आनन्दयुक्त देखे जाते नन्दा दृश्यन्ते विद्वांसः; नूनं
हैं । निश्चय उनका रस ब्रह्म ही है। ब्रह्मव रसस्तेषाम् । तस्मादस्ति
अतः रसके समान उनके आनन्दका तत्तेपामानन्दकारणं रसवब्रह्म ।। | कारणरूप वह ब्रह्म है ही। इतश्चास्ति कुतः ? प्राणनादि- इसलिये भी ब्रह्म है; किसलिये ?
प्राणनादि क्रियाके देखे जानेसे । क्रियादर्शनात् । अयमपि हि | जीवित पुरुषका यह पिण्ड भी प्राणकी
सहायतासे प्राणन करता है और पिण्डो जीवतः प्राणेन प्राणित्य
अपान वायुके द्वारा अपानक्रिया पानेनापानिति । एवं वायवीया
करता है। इसी प्रकार संघातको
प्राप्त हुए इन शरीर और इन्द्रियोंके ऐन्द्रियकाश्च चेष्टाः संहत कार्य द्वारा निष्पन्न होती हुई और भी
वायु और इन्द्रियसम्बन्धिनी चेष्टाएँ करणैर्निवय॑माना दृश्यन्ते ।
देखी जाती हैं । वह वायु आदि
अचेतन पदार्थोका एक ही उद्देश्यकी तच्चैकार्थवृत्तित्वेन संहननं नान्त
सिद्धिके लिये परस्पर संहत (अनु
कूल) होना किसी असंहत (किसीरेण चेतनमसंहतं संभवति । | से भी न मिले हुए) चेतनके बिना अन्यत्रादर्शनात् ।
नहीं हो सकता, क्योंकि और कहीं
ऐसा देखा नहीं जाता। तदाह-तद्यदि एष आकाशे इसी बातको श्रुति कहती हैपरमे व्योग्नि गुहायां निहित यदि आकाश-परमाकाश अर्थात् आनन्दो न स्यान्न भवेत्को डोर | बुद्धिरूप गुहामें छिपा हुआ यह लोकेऽन्यादपानचेष्टां - कुर्यादि
आनन्द न होता तो लोकमें कौन त्यर्थः। का प्राण्यात्प्राणनं वा प्राणन कर सकता; इसलिये वह
| अपान-क्रिया करता और कौन कुर्यात्तस्मादस्तिं तब्रह्म । यदर्थाः ब्रह्म है ही, जिसके लिये कि शरीर