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अनु०११]
शाङ्करभाष्यार्थ
न्तरारम्भसामर्थ्यम् । यथा खतो आरम्भका सामर्थ्य हो सकता है,
जिस प्रकार कि स्वयं मरण और मरणज्वरादिकार्यारम्भसमर्थाना
ज्वरादि कार्योंके आरम्भमें समर्थ मपि विपदध्यादीनां मन्त्रशर्क- होनेपर भी विष एवं दधि आदिमें रादिसंयुक्तानां कार्यान्तरारम्भ
मन्त्र और शर्करादिसे युक्त होनेपर
कार्यान्तरके आरम्भका सामर्थ्य हो सामर्थ्यम्, एवं विद्यासहितैः | जाता है, इसी प्रकार विद्यासहित कर्मभिर्मोक्ष आरभ्यत इति चेत् ?
कमोंसे मोक्षका आरम्भ हो सकता
है-यदि ऐसा मानें तो? न; आरभ्यस्यानित्यत्वादि- सिद्धान्ती-नहीं, जो वस्तु
आरम्भ होनेवाली होती है वह त्युक्तो दोपः।
अनित्य हुआ करती है-इस प्रकार इस
पक्षका दोष बतलाया जा चुका है। वचनादारभ्योऽपि नित्य पूर्व०-किन्तु [ 'न स पुनरा
वर्तते' इत्यादि ] वचनसे तो आरम्भ एवेति चेत् ?
होनेवाला मोक्ष भी नित्य ही होता है ? न; ज्ञापकत्वाद्वचनस्य । सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि वचन
तो केवल ज्ञापक है; यथार्थ अर्थको वचनं नाम यथाभूतस्यार्थस्य बतलानेवालेका ही नाम 'वचन' है। ज्ञापकं नाविद्यमानस्य कर्तृ । न
| वह किसी अविद्यमान पदार्थको
उत्पन्न करनेवाला नहीं होता । हि वचनशतेनापि नित्यमारभ्यत | सैकड़ों वचन होनेपर भी नित्य
वस्तुका आरम्भ नहीं किया जा आरब्धं वाविनाशि भवेत् । | सकता और न आरम्भ होनेवाली वस्तु एतेन विद्याकर्मणोः संहत
अविनाशो ही हो सकती है। इससे
समुचित विद्या और कर्मके मोक्षारम्भयोर्मोक्षारम्भकत्वं प्रत्युक्तम् । कत्वका प्रतिषेध कर दिया गया ।