________________
अनु०३]
शाङ्करभाष्यार्थ
१९
क्रमविवक्षार्थोऽथशब्दः सर्वत्र । यहाँ दर्शन क्रम बतलाना इष्ट होनेके पृथिवी पूर्वरूपं पूर्वो वर्णः पूर्व
| कारण 'अर्थ' शब्दकी सर्वत्र अनुवृत्ति
करनी चाहिये । पृथिवी पूर्वरूप रूपम् । संहितायाः पूर्वे वर्णे है । यहाँ पूर्ववर्ण ही पूर्वरूप कहा
| गया है । इससे यह बतलाया गया पृथिवीष्टिः कर्तव्येत्युक्तं भवति। है कि संहिता ( सन्धि ) के प्रथम
| वर्णमें पृथिवीदृष्टि करनी चाहिये । तथा द्यौः उत्तररूपमाकाशोऽन्त
| इसी प्रकार धुलोक उत्तररूप रिक्षलोकः संधिर्मध्यं पूर्वोत्तर- (अन्तिम वर्ण) है, आकाश अर्थात्
अन्तरिक्ष सन्धि-पूर्व और उत्तररूपयोः संधीयेते अस्मिन्पूर्वोत्तर- रूपका मध्य है अर्थात् इसमें ही रूपे इति । वायुः संधानम् ।
पूर्व और उत्तररूप एकत्रित किये
जाते हैं । वायु सन्धान है । संधीयतेऽनेनेति संधानम् । इत्य
जिससे सन्धि की जाय उसे सन्धान
कहते हैं। इस प्रकार अघिलोक धिलोकं दर्शनमुक्तम् । अथाधि- / दर्शन कहा गया । इसीके समान
'अथाधिज्यौतिपम्' इत्यादि मन्त्रोंका ज्यौतिपमित्यादि समानम् । अर्थ भी समझना चाहिये । इतीमा इत्युक्ता उपप्रदर्यन्ते।
| 'इति' और 'इमाः' इन शब्दोंसे
पूर्वोक्त दर्शनोंका परामर्श किया यः कश्चिदेवमेता महासंहिता जाता है। जो कोई इस प्रकार
व्याख्या की हुई इस महासंहिताको व्याख्याता वेदोपास्ते । वेदेत्यु
जानता अर्थात् उपासना करता हैपासनं साद्विज्ञानाधिकारात्
यहाँ उपासनाका प्रकरण होनेके
कारण'वेद'शब्दसे उपासना समझना "इति प्राचीनयोग्योपास्व" इति । चाहिये जैसा कि 'इति प्राचीन
योग्योपारख'इस आगे (१।६।२ में) च वचनात् । उपासनं च यथा- कहे जानेवाले वचनसे सिद्ध होता है।
१. हे प्राचीनयोग्य शिष्य ! इस प्रकार तू उपासना कर ।