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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० ११ ]
ध्यायादध्ययनान्मा प्रमदः प्रमादं
मा कार्षीः । आचार्यायाचार्यार्थं
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त्येतदेकमेवाचक्ष्यत् । सत्यान्न प्रमदितव्यं प्रमादो
अर्थात् अध्ययन से प्रमाद न कर | आचार्य के लिये प्रिय-उनका अभीष्ट धन लाकर और विद्यादानसे उऋण
।
प्रियमिष्टं धनमाहृत्यानीय दत्त्वा | होनेके लिये उन्हें देकर आचार्यके आज्ञा देनेपर अपने अनुरूप स्त्रीसे विद्यानिष्क्रयार्थम्, आचार्येण | विवाह करके प्रजातन्तु-सन्ततिचानुज्ञातोऽनुरूपान्दारानाहृत्य क्रमका छेदन न कर । अर्थात् प्रजासन्ततिका विच्छेद नहीं करना प्रजातन्तुं प्रजासन्तानं मा व्यव- चाहिये । तात्पर्य यह है कि यदि च्छेत्सीः । प्रजासन्ततेर्विच्छित्तिर्न पुत्र उत्पन्न न हो तो भी पुत्रकाम्या कर्तव्या । अनुत्पद्यमानेऽपि पुत्रे ! उत्पत्ति के लिये यत्न करना ही ( पुत्रेष्टि ) आदि कर्मोद्वारा उसकी } पुत्रकाम्यादिकर्मणा तदुत्पत्तौ चाहिये । [ नवम अनुवाकमें ] प्रजा, यतः कर्तव्य इत्यभिप्रायः । | निर्देश किया गया है; उसकी प्रजन और प्रजाति- तीनोंहीका प्रजाप्रजनप्रजातित्र यनिर्देश- सामर्थ्य से यही बात सिद्ध होती है;
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अन्यथा वहाँ केवल 'प्रजन' इस सामर्थ्यात् । अन्यथा प्रजनथे | एक ही साधनका निर्देश किया
जाता ।
सत्यसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । सत्य से प्रमादका अभिप्राय न कर्तव्यः । सत्याच प्रमदनम | है असत्यका प्रसंग, यह प्रमाद शब्द
नृतप्रसङ्गः, प्रमादशन्दसामर्थ्यात् ।
के सामर्थ्य से वोधित होता है। तात्पर्य यह है कि कभी भूलकर भी असत्य - भापण नहीं करना चाहिये; यदि ऐसा तात्पर्य न होता तो, यहाँ केवल असत्यभापणका निषेध हो प्रतिपेध एव स्यात् । धर्मान्न | किया जाता । धर्मसे प्रमाद नहीं
विस्मृत्याप्यनृतं न वक्तव्यमित्यर्थः । अन्यथासत्यवदन