________________
अनु०८]
शाङ्करभाष्यार्थ
त्येवंवित् । एवंशब्दस्य प्रकृत- (इस प्रकार जाननेवाला) है, क्योंकि परामर्शार्थत्वात् । स किम् ? का परामर्श (निर्देश) करनेके
"एवम्' शब्द प्रसंगमें आये हुए पदार्थअसाल्लोकात्त्य दृष्टादृष्टेष्टवि- लिये हुआ करता है । वह एवंवित्
| क्या [ करता है ?] इस लोकसे पयसमुदायो ह्ययं लोकस्तस्सा- | जाकर--दृष्ट और अदृष्ट इष्ट विपयोंनोकामयावरिपोका समुदाय ही यह लोक है, उस
इस लोकसे प्रेत्य-प्रत्यावर्तन करके भृत्वैतं यथाव्याख्यातमन्नमय-(लौटकर ) अर्थात् उससे निरपेक्ष मात्मानमुपसंक्रामति । विपयजात- होकर इस ऊपर व्याख्या किये हुए
अन्नमय आत्माको प्राप्त होता है। मन्नमयात्पिण्डात्मनो व्यतिरिक्तं | अर्थात् वह विपयसमूहको अन्नमय न पश्यति । सर्व स्थूलभूतमन्न
शरीरसे भिन्न नहीं देखता; तात्पर्य
यह है कि सम्पूर्ण स्थूल भूतवर्गको मयमात्मानं पश्यतीत्यर्थः ।। | अन्नमय शरीर ही समझता है।
ततोऽभ्यन्तरमेतं प्राणमयं | उसके भीतर वह सम्पूर्ण अन्नमय सर्वान्नमयात्मस्थमविभक्तम । कोशोंमें स्थित विभागहीन प्राणमय
आत्माको देखता है। और फिर अर्थतं मनोमयं विज्ञानमयमा- क्रमशः इस मनोमय, विज्ञानमय और नन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति । आनन्दमय आत्माको प्राप्त होता है। अथादृश्येऽनात्म्ये निरुक्तेऽनिल
तत्पश्चात् वह इस अदृश्य, अशरीर,
अनिर्वचनीय, और अनाश्रय आत्मामें यनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते । । | अभयस्थिति प्राप्त कर लेता है।
तत्रैतच्चिन्त्यम् । कोऽयमेवं- अब यहाँ यह विचारना है कि तृतीयानुप्रश्न- वित्कथं वा संक्राम- यह इस प्रकार जाननेवाला है कौन ?
विचारः तीति । कि परमा- और यह किस प्रकार संक्रमण करता दात्मनोऽन्यः संक्रमणकर्ता प्रवि- है ? वह संक्रमणकर्ता परमात्मासे भक्त उत स एवेति । . भिन्न है अथवा खयं वही है ।