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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली २
आत्मना त्वप्रविभक्तदेशकाले | देश और काल आत्मासे अभिन्न हैं - इसीलिये 'आत्मा ही मूर्त और अमूर्त हुआ' ऐसा कहा जाता है ।
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इति कृत्वात्मा ते अभवदित्युच्यते ।
किं च निरुक्तं चानिरुक्तं चा
निरुक्तं नाम निष्कृष्य समाना
समानजातीयेभ्यो विशिष्टतयेदं तदित्युक्तमनिरुक्तं तद्विपरीतं निरुक्तानिरुक्ते अपि
मूर्तीमूर्तयोरेव विशेषणे । यथा
सच्च त्यच्च प्रत्यक्षपरोक्षे, तथा निलयनं चानिलयनं च । निल
तथा वही निरुक्त और अनिरुक्त भी हुआ । निरुक्त उसे कहते हैं जिसे सजातीय और विजातीय
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देशकाल - पदार्थोंसे अलग करके देश-कालविशिष्टरूपसे ' वह यह है' ऐसा कहा जाय । इससे विपरीत लक्षणोंवालेको 'अनिरुक्त' कहते हैं | निरुक्त और अनिरुक्त भी मूर्त और अमूर्तके ही विशेषण हैं। जिस प्रकार 'सत्' और 'त्यत्' क्रमशः
'प्रत्यक्ष' और 'परोक्ष' को कहते हैं उसी प्रकार 'निलयन' और 'अनिलयन' भी समझने चाहिये । निलयन-नीड अर्थात् आश्रय अनिलयनं तद्विपरीतममूर्तस्यैव | विपरीत अनिलयन अमूर्तका ही मूर्तका ही धर्म है और उससे
यनं नीडमाश्रयो मूर्तस्यैव धर्मः ।
धर्मः ।
धर्म है ।
त्यदनिरुक्तानिलयनान्यमूर्त- त्यत्, अनिरुक्त और अनिलयन
धर्मत्वेऽपि व्याकृतविषयाण्येव । ये अमूर्त के धर्म होनेपर भी व्याकृत ( व्यक्त ) से ही सम्बन्ध रखनेवाले सर्वोत्तरकालभावश्रवणात् । त्य- । हैं, क्योंकि इनकी सत्ता सृष्टिके दिति प्राणाद्यनिरुक्तं तदेवानि - अनन्तर ही सुनी गयी है । यत्यह प्राणादि अनिरुक्तका नाम है; लयनं च । अतो विशेषणान्य- | वही अनिलयन भी है । अतः ये