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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
नियुक्त अथवा आयुक्त ( दूसरोंसे प्रेरित न होकर खतः कर्ममें परायण ), सरलहृदय और धर्माभिलाषी ब्राह्मण हों, वे जैसा व्यवहार करें तू भी वैसा ही कर । यह आदेश-विधि है, यह उपदेश है, यह वेदका रहस्य है और [ ईश्वरकी ] आज्ञा है । इसी प्रकार तुझे उपासना करनी चाहिये--ऐसा ही आचरण करना चाहिये ॥ ४ ॥ वेदमनूच्याध्याप्याचार्योऽन्ते- वेदका अध्ययन करानेके
.. अनन्तर आचार्य अन्तेवासी-शिप्यभधीतवेदस्य वासिनं शिष्यमनु
७ को उपदेश करता है; अर्थात् ग्रन्थकत्तव्यनिरूपणन् शास्ति ग्रन्थग्रहणा- ग्रहणके पश्चात् अनुशासन करता
: है-उसका अर्थ ग्रहण कराता है । दनु पश्चाच्छास्ति तदर्थ ग्राहयती
। इससे ज्ञात होता है कि वेदाध्ययन त्यर्थः । अतोऽवगम्यतेऽधीतवेदस्य कर चुकनेपर भी ब्रह्मचारीको बिना
धर्मजिज्ञासा किये गुरुकुलसे समांधमेजिज्ञासामकृत्वा गुरुकुलान्न वर्तन ( अपने घरकी और प्रत्या-- समावर्तितव्यमिति । “बुद्ध्वा
..गमन ) नहीं करना चाहिये ।
| "कर्मोका यथावत् ज्ञान प्राप्त करके कर्माणि चारभेत" इति स्मृतेश्च। उनके अनुष्ठानका आरम्भ करे" इस
स्मृतिसे भी यही सिद्ध होता है। कथमनुशास्तीत्याह- किस प्रकार उपदेश करता है ? सो
बतलाते हैंसत्यं वद यथाप्रमाणावगतं सत्य बोल अर्थात् जो कहने
योग्य बात प्रमाणसे जैसी जानी । वक्तव्यं तद्वद । तद्वद्धर्म चर । गयी हो उसे उसी प्रकार कह ।
इसी प्रकार धर्मका आचरण कर । धर्म इत्यनुष्ठेयानां सामान्यवचनं 'धर्म' यह अनुष्ठान करनेयोग्य
कर्मोका सामान्यरूपसे वाचक है, . सत्यादिविशेपनिर्देशात । स्वा- क्योंकि सत्यादि विशेष धर्मोका तो
निर्देश कर ही दिया है । स्वाध्याय