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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली १
परिपाकाद्विरक्तस्य कर्मसु प्रयो- प्राप्ति होती है और ज्ञानके परिपाकजनमपश्यतः कर्मभ्यो निवृत्ति-से विषयोंमें वैराग्य होता है तो,
कमोंमें अपना कोई प्रयोजनन देखकर रेव स्यात् । "प्रव्रजिष्यन्वा अरे
। उनसे निवृत्ति ही होगी। इस विषयमें ऽहमसात्स्थानादमि" (वृ० उ० | "अरी मैत्रेयि ! अब मैं इस स्थानसे ४।५ । २) इत्येवमादिश्रुति- | संन्यास करना चाहता हूँ" इत्यादि लिङ्गदर्शनात् ।
श्रुतिरूप लिङ्ग भी देखा जाता है । कर्म प्रति श्रुतेर्यताधिक्यद- पूर्व०-किन्तु कर्मके प्रति श्रुतिका र्शनादयुक्तमिति चेदग्निहोत्रादि
अधिक प्रयत्न देखनेसे तो यह बात
ठीक नहीं जान पड़ती?-अग्निहोत्रादि कर्म प्रति श्रुतेरधिको यतो कर्मके प्रति श्रुतिका विशेष प्रयत्न है; महांश्च कर्मण्यायासोऽनेकसाध- | कर्मानुष्ठानमें आयास भी अधिक है,
क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्म अनेक नसाध्यत्वादग्निहोत्रादीनाम् ।
साधनोंसे सिद्ध होनेवाले हैं । अन्य तपोब्रह्मचर्यादीनां चेतराश्रम- आश्रमोंके कर्म तप और ब्रह्मचर्यादि कर्मणां गार्हस्थ्येऽपि समानत्वाद
तो गृहस्थाश्रममें भी उन्हींके समान
कर्तव्य तथा अल्प साधनकी अपेक्षाल्पसाधनापेक्षत्वाचेतरेषां न
वाले हैं; अतः अन्य आश्रमियोंके युक्तस्तुल्यवद्विकल्प आश्रमिभि
साथ गृहस्थाश्रमको समान-सा स्तस्येति चेत् ।
| मानना तो उचित नहीं है? न जन्मान्तरकृतानुग्रहात् ।। सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि उनपर यदुक्तं
जन्मान्तरका अनुग्रह होता है। कर्मणि
.श्रुतराधका तुमने जो कहा कि 'कर्मपर
श्रुतेरधिको यत्न इत्यादि नासौ दोपः । श्रुतिका विशेष प्रयत्न है' इत्यादि,
। सो यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि