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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली २
उपनाम:
ब्रह्मज्ञानके फल, सष्टिकम और अन्नमयकोशरूप
पक्षीका वर्णन संहितादिविपयाणि कर्मभि- कम से अविरुद्ध संहितादिविषयक
रविरुद्धान्युपासना- , उपासनाओंका पहले वर्णन किया न्युक्तानि अनन्तरं गया । उसके पथात् व्याहतियोंक
द्वारा स्वाराज्यसप फल देनेवाला चान्त सोपाधिकात्मदर्शनमुक्त
हृदयसित सोपाधिक आत्मदर्शन व्याहतिद्वारेण स्वाराज्यफलम् । कहा गया । किन्तु इतनेहीसे संसारन चैतावताशेषतः संसारवीज- के बीजका पूर्णतया नाश नहीं हो स्योपमर्दनमस्तीत्यतोऽशेपोपद्रव- जाता । अतः सम्पूर्ण उपद्रयोंके वीजस्याज्ञानस्य निवृत्त्यर्थं विधत- बीजभूत अज्ञानको निवृत्तिकै निमिन
इस सर्वोपाधिरूप विशेपने रहित सर्वोपाधिविशेषात्मदर्शनार्थमिद
आत्माका साक्षात्कार करानेके लिये भारस्यते ब्रह्मविदामोति पर- अब 'ब्रहाविदामोति परम्' इत्यादि मित्यादि।
मन्त्र आरम्भ किया जाता है । प्रयोजनं चास्या ब्रह्मविद्याया . इस ब्रह्मविघाका प्रयोजन अविद्याअविद्यानिवृत्तिस्तत आत्यन्तिकः को निवृत्ति है, उससे संसारका
| आत्यन्तिक अभाव होता है। यही संसाराभावः । वक्ष्यति च
बात "ब्रह्मवेत्ता किसीसे नहीं डरता" "विद्वान विभेति कुतश्चन" इत्यादि वाक्यसे श्रुति आगे कहेगी (ते० उ०२।९।१) इति । | भी । संसारके निमित्त [ अज्ञान] संसारनिमित्ते च सत्यभयं
के रहते हुए 'पुरुष अभय स्थितिको
प्राप्त कर लेता है तथा उसे कृत प्रतिष्ठां च विन्दत इत्यनुपपन्नम्, और अकृत अर्थात् पुण्य और पाप
ताकृते पुण्यपापे न तपत इति ताप नहीं पहुँचाते' ऐसा मानना च । अतोऽवगम्यतेऽसाद्विज्ञाना
| सर्वथा अयुक्त है। इससे जाना सर्वात्मब्रह्मविषयादात्यन्तिका
जाता है कि इस सर्वात्मक ब्रह्म
विषयक विज्ञानसे ही संसारका संसाराभाव इति । | आत्यन्तिक अभाव होता है ।