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तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली २
यस्मादनात्म्यं तस्मादनिरुक्तम्। अशरीर है इसलिये अनिरुक्त है। विशेपो हि निरुच्यते विशेपश्च निरूपण विशेषका ही किया जाता
है और विशेष विकार ही होता है; विकारः । अविकारं च नमः।
किन्तु ब्रह्म सम्पूर्ण विकारका कारण सर्वविकारहेतुत्वात्तस्मादनिरुक्त होनेसे स्वयं अविकार ही है, इसलिये म् । यत एवं तस्मादनिलयनं वह अनिरुक्त है । क्योंकि ऐसा है निलयनं नीड आश्रयो न इसलिये वह अनिलयन है; निलयन
| आश्रयको कहते हैं, जिसका निलयन निलयनमनिलयनमनाधारं तस्मि..
" न हो वह अनिलयन यानी अनाश्रय नेतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्ते- है । उस इस अदृश्य, अनात्म्य, निलयने सर्वकार्यधर्मविलक्षणे अनिरुक्त और अनिलयन अर्थात् ब्रह्मणीति वाक्यार्थः। अभयमिति सम्पूर्ण कार्यधमोंसे विलक्षण ब्रह्ममें
| अभय प्रतिष्ठा-स्थिति यानी आत्मक्रियाविशेषणम् । अभयामिति वा
भावको प्राप्त करता है । उस समय लिङ्गान्तरं परिणभ्यते । प्रतिष्ठां उसमें भयके हेतुभूत नानात्वको न स्थितिमात्मभावं विन्दते लभते ।
| देखनेके कारण अभयको प्राप्त हो
जाता है । मूलमें 'अभयम्' यह अथ तदा स तस्मिन्नानात्वस्य क्रियाविशेषण है * अथवा इसे भयहेतोरविद्याकृतस्यादर्शनाद
'अभयाम्' इस प्रकार अन्य (स्त्री)
| लिङ्गके रूपमें परिणत कर लेना भयं गतो भवति ।
चाहिये।
खरूपप्रतिष्ठो ह्यसौ यदा। जिस समय यह अपने खरूपमें. भवति तदा नान्यत्पश्यति ना- स्थित हो जाता है उस समय यह
* अर्थात् अमयरूपसे प्रतिष्ठा-स्थिति यानी आत्मभाव प्राप्त कर लेता है।