________________
१०४
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
गतेन सर्वात्मना नित्यब्रह्मात्म-प्रकारसे सर्वत सर्वगत सर्वात्मक ।
एवं नित्यब्रह्मात्मस्वरूपसे, धर्मादि स्वरूपेण धर्मादिनिमित्तानपेक्षा- निमित्तको अपेक्षासे रहित तथा श्वक्षुरादिकरणनिरपेक्षांश्च सर्वा- चक्षु आदि इन्द्रियोंसे भी निरपेक्ष
सम्पूर्ण भोगोंको एक साथ ही प्राप्त कामान्सहैवाश्नुत इत्यर्थः । कर लेता है-यह इसका तात्पर्य
है। विपश्चित्-मेधावी अर्थात् सर्वज्ञ विपश्चिता मेधाविना सर्वज्ञेन ।
ब्रह्मरूपसे । ब्रह्मका जो सर्वज्ञत्व है तद्धि वैपश्चित्यं यत्सर्वज्ञत्वं तेन यही उसकी विपश्चित्ता (विद्वत्ता) है।
उस सर्वज्ञखरूप ब्रह्मरूपसे ही वह सपशखरूपण अलणारत शत । उन्हें भोगता है । मूलमें 'इति' शब्द इतिशब्दो सन्त्रपरिसमाप्त्यर्थः। मन्त्रकी समाप्ति सूचित करनेके लिये है। __ सर्व एव वल्लयर्थो नमाविदा-' 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' इस ब्राह्मणमोति परमिति ब्राह्मणवाक्येन वाक्यद्वारा इस सम्पूर्ण वल्लीका अर्थ सूत्रितः । स च सूनितोऽर्थः सूत्ररूपसे कह दिया है । उस संक्षेपतो मन्त्रेण व्याख्यातः। सूत्रभूत अर्थकी ही मन्त्रद्वारा संक्षेप
से व्याख्या कर दी गयी है। अब पुनरतस्यैव विस्तरेणार्थनिर्णयः ।
फिर उसीका अर्थ विस्तारसे निर्णय कर्तव्य इत्युत्तरस्तवृत्तिस्थानीयो
4। करना है-इसीलिये उसका वृत्तिरूप ग्रन्थ आरभ्यते तस्माद्वा एतसा- . 'तस्माद्वा एतस्मात' इत्यादि आगेका दित्यादि।
| ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है। तत्र च सत्यं ज्ञानमनन्तं उस मन्त्रमें सबसे पहले 'सत्यं सत्यं शानमनन्तं ब्रह्मत्युक्तं मन्त्रादौ ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' ऐसा कहा है। वह ब्रह्मति मीमांस्यते तत्कथं सत्यं ज्ञान- | सत्य, ज्ञान और अनन्त किस प्रकार मनन्तं चेत्यत आह । तत्र है ? सो बतलाते हैं-अनन्तता त्रिविधं ह्यानन्त्यं देशतः कालतो तीन प्रकारकी है-देशसे, कालसे वस्तुतश्चेति । तद्यथा देशतो- और वस्तुसे । उनमें जैसे आकाश ऽनन्त आकाशः। न हि देशतस्तस्य देशतः अनन्त है। उसका देशसे ।