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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
विरोधाच विद्याकर्मणोः समु- इसके सिवा विद्या और कर्मका चयानुपपत्तिः। प्रविलीनका- विरोध होनेके कारण भी उनका दिकारकविशेषतत्त्वविपया हि समुच्चय नहीं हो सकता । जिसमें विद्या तद्विपरीतकारकसाध्येन का
पोसाकमा कर्ता-करण आदि कारकत्रिशेपोंका कर्मणा विरुध्यते । न ह्येकं वस्तु
पूर्णतया लय होता है उस तत्त्वको परमार्थतः कादिविशेषवत्तच्छु
(ब्रह्मको) विषय करनेवाली विद्या न्यं चेत्युभयथा द्रष्टुं शक्यते ।
अपनेसे विपरीत साधनसाध्य कर्मसे
विरुद्ध है। एक ही वस्तु परमार्थतः अवश्यं ह्यन्यतरन्मिथ्या स्यात् । अन्यतरस्य च मिथ्यात्वप्रसङ्गे
कर्ता आदि विशेपसे युक्त और उस
से रहित-दोनों ही प्रकारसे नहीं युक्तं यत्स्वाभाविकाज्ञानविपयस्य द्वैतस्य मिथ्यात्वम् । “यत्र हि
देखी जा सकती । उनमेंसे एक
पक्ष अवश्य मिथ्या होना चाहिये । द्वैतमिव भवति" (वृ० उ०२।।
इस प्रकार किसी एकके मिथ्यात्वका ४ । १४) "मृत्योः स मृत्यु
प्रसङ्ग उपस्थित होनेपर जो खभावमामोति" (क० उ०२।१।
से ही अज्ञानका विषय है उस १०, वृ० उ० ४ । ४ । १९)
द्वैतका ही मिथ्या होना उचित है, "अथ यत्रान्यत्पश्यति'....
जैसा कि "जहाँ द्वैतके समान होता तदल्पम्" (छा० उ०७।२४।१)
है" "वह मृत्युसे मृत्युको प्राप्त होता "अन्योऽसावन्योऽहममि" (वृ०
है" "जहाँ अन्य देखता है वह अल्प उ०१।४।१०) "उदरमन्तरं
न्तर है" "यह अन्य है मैं अन्य हूँ" "जो कुरुते अथ तस्य भयं भवति" थोड़ा-सा भी अन्तर करता है उसे (तै० उ०२।७।१) इत्यादि- भय प्राप्त होता है" इत्यादि सैकड़ों श्रुतिशतेभ्यः।
। श्रुतियोंसे प्रमाणित होता है ।