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अनु० १०J
शाङ्करभाष्यार्थ
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'देवी समास भवाः समाज्ञा उ
समाज्ञाः, आध्यात्मिक्यः समाज्ञा रहनेवाली समाज्ञा है, अर्थात् यह ज्ञानानि विज्ञानान्युपासनानी
| आध्यात्मिक समाज्ञा-ज्ञान-विज्ञान
" यानी उपासना है-यह इसका त्यर्थः।
| तात्पर्य है। अथानन्तरं दैवीर्दैव्यो देवेषु अब इसके पश्चात् दैवी-देव
। सम्बन्धिनी अर्थात् देवताओंमें होने
वाली समाज्ञा कही जाती है । तृप्ति _ च्यन्ते । तृप्तिरिति इस भावसे वृष्टिमें [ब्रह्मकी उपासना वृष्टौ। वृष्टेरन्नादिद्वारेण वृप्ति- | करे ] । अन्नादिके द्वारा वृष्टि तृप्ति
का कारण है। अतः तृप्तिरूपसे हेतुत्वाबींव तृप्त्यात्मना वृष्टो ब्रह्म ही वृष्टिमें स्थित है-इस प्रकार व्यवस्थितमित्युपास्यम्। तथान्येषु उसकी उपासना करनी चाहिये ।
इसी प्रकार अन्य पर्यायोंमें भी उनतेन तेनात्मना ब्रह्मैवोपास्यम् ।
उनके रूपसे ब्रह्मकी ही उपासना तथा वलरूपेण विद्युति ॥२॥ करनी चाहिये । अर्थात् बलरूपसे
विद्युत् में ॥२॥ यशरूपसे पशुओंमें, यशोरूपेण पशुपु । ज्योतीरूपेण
" | ज्योतिरूपसे नक्षत्रोंमें, प्रजाति नक्षत्रेषु । प्रजातिरमृतममृतत्व- (पुत्रादि प्रजा) अमृत-अर्थात् पुत्रेप्राप्तिः पुत्रेण ऋणविमोक्षद्वारेणा
द्वारा पितृऋणसे मुक्त होनेके द्वारा
अमृतत्वकी प्राप्ति औरआनन्द-सुख नन्दः सुखमित्येतत्सर्वमुपस्थनि- ये सत्र उपस्थके निमित्तसे हो मित्तं ब्रह्मैवानेनात्मनोपस्थे प्रति- | होनेवाले हैं; अतः इनके रूपसे
ब्रह्म ही उपस्थमें स्थित है-इस प्रकार ष्ठितमित्युपास्यम् ।
उसकी उपासना करनी चाहिये । - सर्वं ह्याकाशे प्रतिष्ठितमतो। सब कुछ आकाशमें ही स्थित
है। अतः आकाशमें जो कुछ है यत्सर्वमाकाशे तौवेत्युपास्यम्। वह सब ब्रह्म ही है-इस प्रकार
उसकी उपासना करनी चाहिये । तच्चाकाशं ब्रह्मैव । तसात्तत् । तथा वह आकाश भी ब्रह्म ही है ।