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अनु०११]
शाङ्करभाज्यार्थ
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फलार्थिनां च फलसाधनं न इच्छावालोंको [उनके इष्ट] फलकी
प्राप्ति करानेका साधन है, वह कारकास्तत्व व्याप्रियत । उप- कारकोंका अस्तित्व सिद्ध करने में 'चितदुरितप्रतिवन्धस्य हि विद्यो
प्रवृत्त नहीं है। जिस पुरुषका
| सञ्चित पापरूप प्रतिबन्ध विद्यमान त्पत्ति वकल्पते । तत्क्षये च रहता है उसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं
| हो सकती; उसका क्षय होजानेपर विद्योत्पत्तिः स्थानतश्चाविद्यानि
ही ज्ञान होता है और तभी • वृत्तिस्तत आत्यन्तिकः संसारो- | अविद्याकी निवृत्ति होती है तथा
उसके अनन्तर ही संसारकी परमः।
आत्यन्तिक उपरति होती है । । अपि चानात्मदर्शिनो घना- इसके सिवा जो पुरुष अनात्म
दी है उसे ही अनात्मवस्तु• शानादेव तु त्मविषयः कामः ।
सम्बन्धिनी कामना हो सकती है। कैवल्यम्' कामयमानश्च करो
कामनावाला ही कर्म करता ति कर्माणि । ततस्तत्फलोप- है और उसीसे उनका फल भोगनेके भोगाय शरीराद्युपादानलक्षणः
लिये उसे शरीरादिग्रहणरूप संसार
की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत संसारः । तद्व्यतिरेकेणात्मैक- जो आत्मैकत्वदशी है उसकी दृष्टिमें
विपयोंका अभाव होनेके कारण उसे त्वदर्शिनो विपयाभावात्कामानु-! उनकी कामना भी नहीं हो सकती।
आत्मा तो अपनेसे अभिन्न है, इसस्पत्तिरात्मनि चानन्यत्वात्का-लिये उसकी कामना भी असम्भव मानुत्पत्तौ खात्मन्यवस्थानं मोक्ष
होनेके कारण उसे खात्मस्वरूपमें
|स्थित होनारूप मोक्ष सिद्ध ही है । इत्यतोऽपि.विद्याकर्मणोविरोधः। इसलिये भी ज्ञान और कर्मका विरोध