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ततिरीयोपनिपद्
[ चल्ली २
शानमित्यत्य
चरदतृतमित्युच्यते । अतो वि- व्यभिचरित होनेपर बह मिथ्या कहा कारोऽनृतम् । "वाचारम्भणं जाता है । इसलिये विकार मिथ्या
· है। "विकार केवल वाणांसे आरम्भ विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव होनेवाला और नाममात्र है, बस, - सत्यम्" (छा० उ०६।१।४) मृत्तिका ही सत्य है" इस प्रकार
निश्रय किया जानेके कारण सत् एवं सदेव सत्यमित्यवधारणात् ।
ही सत्य है। अतः 'सत्यं ब्रह्म' अतः सत्य ब्रहात नल विकार वह वाक्य ऋको विकारमात्र रान्निवर्तयति।
निवृत्त करता है। अतः कारणत्वं प्राप्तं ब्रह्मणः। इससे ब्रह्मका कारणत्त्र प्राप्त
होता है और वस्तुरूप होनेसे कारणस्य च कार
कारणमें कारकत्व रहा करता है। तात्पर्यन कत्व वस्तुत्वान्मृद्ध- अतः मृत्तिकाक समान उसकी जड़शानकर्तुत्वाभाव-दचिद्रूपता च प्रा- रूपताका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता निरूपणं च
सात इदमुच्यते है । इत्तीसे 'ज्ञानं ब्रह्म' ऐसा कहा ज्ञानं ब्रह्मोति । ज्ञानं ज्ञप्तिरव- है । 'ज्ञान' ज्ञप्ति यानी अवबोधको
। कहते हैं । 'ज्ञान' शब्द भाववाचक वोधः, भावसाधनो ज्ञानशब्दो
भावसाचना ज्ञानशब्दा, है; 'सत्य' और 'अनन्त' के न तु ज्ञानकर्ट ब्रह्माविशेषण- । साथ ब्रह्मका विशेषण होनेके कारण त्वात्सत्यानन्ताभ्यां सह । न उसका अर्थ 'ज्ञानकर्ता नहीं हो
सकता । उसका ज्ञानकर्तृत्व स्वीकार हि सत्यतानन्तता च ज्ञान- करनेपर ब्रह्मकी सत्यता और कतत्वे सत्युपपद्यते । ज्ञान- अनन्तता सम्भव नहीं है। ज्ञानकर्तृत्वेन हि चिक्रियमाणं कथं
। कर्तारूपसे विकारको प्राप्त होनेवाला
कय होकर ब्रह्म सत्य और अनन्त कैसे सत्यं भवेदनन्तं च । यद्धि न हो सकता है ? जो किसीसे भी