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अनु०९]
'शाङ्करभाष्यार्थ
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नन्वस्ति भयनिमित्तं साध्व- शंका-किन्तु शुभ कर्मका न
करना और पापकर्म करना यह तो करणं पापक्रिया च ?
भयका कारण है ही? नैवम् ; कथमित्युच्यते-एतं
___समाधान-ऐसी बात नहीं है।
किस प्रकार नहीं है सो बतलाया यथोक्तमेवंविदम्, ह वावेत्यव
| जाता है-इस पूर्वोक्तको अर्थात् इस धारणार्थों, न तपति नोद्वेज-प्रकार जाननेवालेको वह तप्त-उद्विग्न यति न संतापयति । कथं पुनः अथात्
अर्थात् सन्तप्त नहीं करता । मूलमें
'ह' और 'वाव' ये निश्चयार्थक साध्वकरणं पापक्रिया च न ।
| निपात हैं । वह पुण्यका न करना तपतीत्युच्यते । किं कस्मात्साधु और पापक्रिया उसे किस प्रकार शोभनं कर्म नाकरवं न कृतवा
ताप नहीं देते ? इसपर कहते हैं
| 'मैंने शुभ कर्म क्यों नहीं किया' नस्मीति पश्चात्संतापो भवत्या- | ऐसा पश्चात्ताप मरणकाल समीप सन्ने मरणकाले । तथा कि आनेपर हुआ करता है तथा 'मैंने
. | पाप यानी प्रतिपिद्ध कर्म क्यों करसात्पापं प्रतिपिद्धं कर्माकरवं
| किया ऐसा दुःख नरकपात आदिकृतवानसीति च नरकपतनादि- के भयसे होता है । ये पुण्यका न दुःखभयात्तापो भवति। ते एते करना और पापका करना इस
विद्वान्को इस प्रकार संतप्त नहीं साध्वकरणपापक्रिये एवमेनं न करते जैसे कि वे अविद्वान्को किया तपतो यथाविद्वांसं तपतः। करते हैं । ___ कस्मात्पुनर्विद्वांसं न तपत वे विद्वान्को क्यों सन्तप्त नहीं इत्युच्यते-स य एवंविद्वानेते करते ? सो बतलाया जाता है-ये
पाप-पुण्य ही तापके हेतु हैं-इस साध्वसाधुनी तापहेतू इत्यात्मानं
प्रकार जाननेवाला जो विद्वान् स्पृणुते प्रीणयति बलयति वा आत्माको प्रसन्न अथवा सबल करता