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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
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ननु न युक्तं मृद्वच्चेत्कारणं पूर्व०-यदि ब्रह्म मृत्तिकाके
समान जगत्का कारण है तो ब्रह्म तदात्मकत्वात्कार्यस्य । का
- उसका कार्य तद्रूप होनेके कारण रणमेव हि कार्यात्मना परिणत- उसमें उसका प्रवेश करना सम्भव
नहीं है। क्योंकि कारण ही कार्यरूपमित्यतोऽप्रविष्ट इव कार्योत्पत्ते- से परिणत हुआ करता है, अतः रूवं पृथकारणस्य पुनः प्रवेशो
किसी अन्य पदार्थके समान पहले
विना प्रवेश किये कार्यकी उत्पत्तिके ऽनुपपन्नः । न हि घटपरिणाम- अनन्तर उसमें कारणका पुनः प्रवेश व्यतिरेकेण मृदो घटे प्रवेशो
करना सर्वथा असम्भव है ? घटरूप
में परिणत होनेके सिवा मृत्तिकाका ऽस्ति । यथा घटे चूर्णात्मना घटमें और कोई प्रवेश नहीं हुआ मृदोऽनुप्रवेश एवमन्येनात्मना करता । हाँ, जिस प्रकार घटमें चूर्ण
(बालू ) रूपसे मृत्तिकाका अनुनामरूपकार्येऽनुप्रवेश आत्मन इति प्रवेश होता है उसी प्रकार किसी चेच्छुत्यन्तराच "अनेन जीवेना
अन्य रूपसे आत्माका नाम-रूप कार्यमें
भी अनुप्रवेश हो सकता है, जैसा स्मनानुप्रविश्य" (छा० उ०६। कि "इसजीवरूपसे अनुप्रवेश करके" ३।२) इति ।
इस अन्य श्रुतिसे प्रमाणित होता है
-यदि ऐसा माने तो ? नैवं युक्तमेकत्याद्रह्मणः । मृ- सिद्धान्ती-ऐसा मानना उचित
नहीं है, क्योंकि ब्रह्म तो एक ही दात्मनस्त्वनेकत्वात्सावयवत्वाच है । मृत्तिकारूप कारण तो अनेक
और सावयव होनेके कारण उसका यक्तो घटे मृदचूर्णात्मनानु-घटमें चूर्णरूपसे अनुप्रवेश करना भी प्रवेशः। मृदचूर्णस्याप्रविष्टदेश- | सम्भव है, क्योंकि मृत्तिकाके चूर्णका
उस देशमें प्रवेश नहीं है, किन्तु वत्त्वाच्च । न त्वात्मन एकत्वे | आत्मा तो एक है, अतः उसके इसी प्रकार 'अनुप्राविशत्' और 'सृष्ट्वा' इन दोनों क्रियाओंका कर्ता भी ब्रह्म ही होना चाहिये।