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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली२
स्वात्मानमेवोपसंक्रामतीति वि-प्रकरणका आरम्भ करके अब 'मनो
मय अथवा विज्ञानमय अपनेको रोधः स्यात् । तथा नानन्दमय- ही प्राप्त होता है' ऐसा कहनेमें स्यात्मसंक्रमणमुपपद्यते । तस्मान्न उससे विरोध आता है। इसी प्रकार
आनन्दमयका भी अपनेको प्राप्त प्राप्तिः संक्रमणं नाप्यन्नमयादी
होना सम्भव नहीं है। अतः प्राप्तिका नामन्यतसकर्तृकम् । पारिशेष्याद- नाम संक्रमण नहीं है और न वह
अन्नमयादिमेंसे किसीके द्वारा किया नमयाद्यानन्दमयान्तात्मव्यति-जाता है । फलतः आत्मासे भिन्न रिक्तकर्वकं ज्ञानमात्रं च संक्रमण
अन्नमयसे लेकर आनन्दमय कोश
पर्यन्त जिसका कर्ता है वह ज्ञानमात्र मुपपद्यते।
ही संक्रमण होना सम्भव है। ज्ञानमात्रत्वे चानन्दमयान्त:- इस प्रकार 'संक्रमण' शब्दका
अर्थ ज्ञानमात्र होनेपर ही आनन्दमय स्थस्यैव सर्वान्तरस्याकाशाद्यन्न
। कोशके भीतर स्थित सर्वान्तर तथा मयान्तं कार्य सृष्ट्वानुप्रविष्टस्य ! आकाशसे लेकर अन्नमयकोशपर्यन्त
कार्यवर्गको रचकर उसमें अनुप्रविष्ट हृदयगुहाभिसंवन्धादन्नमयादि- हुए आत्माका जो हृदयगुहाके वनात्मस्वात्मविभ्रमः संक्रमणे- सम्बन्धसे अन्नमय आदि अनात्माओं
में आत्मत्वका भ्रम है वह संक्रमणनात्मविवेकविज्ञानोत्पत्त्या विन-खरूप विवेक ज्ञानकी उत्पत्तिसे नष्ट श्यति । तदेतस्मिन्नविद्याविभ्रम- हो जाता है । अतः इस अविद्यारूप
| भ्रमके नाशमें ही संक्रमण शब्दका नाशे संक्रमणशब्द उपचर्यते न उपचार (गौणरूप) से प्रयोग ह्यन्यथा सर्वगतस्यात्मनः संक्र
किया गया है। इसके सिवा किसी और .
प्रकार सर्वगत आत्माका संक्रमण -- मणमुपपद्यते ।
| होना सम्भव नहीं है।