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अनु०७]
शाकरभाप्यार्थ
यस्माद्वा खयमकरोत्सर्व अथवा, क्योंकि सर्वरूप होने
से ब्रह्मने स्वयं ही इस सम्पूर्ण सवात्मना तस्मात्पुण्यरूपेणापि जगतकी रचना की है, इसलिये तदेव नम कारणं सुक्रतमच्यते।: पुण्यरूपसे भी उसका कारणरूप
"'. वह ब्रह्म 'सुकृत' कहा जाता है। सर्वथापि तु फलसंवन्धादि- · लोकमें जो कार्य [पुण्य अथवा
_ 'पाप ] किसी भी प्रकारसे फलके कारणं सुकृतशब्दवाच्यं प्रसिद्धं सम्बन्धादिका कारण होता है वही
___ । 'सुकृत' शब्दके वाच्यरूपसे प्रसिद्ध लोक। यदि पुण्यं यदि वान्यत्सा होता है । यह प्रसिद्धि चाहे पुण्यप्रसिद्धिनित्य चेतनवकारणे रूपा हो और चाहे पापरूपा किसी
नित्य और सचेतन कारणके होनेपर सत्युपपद्यते । तस्मादस्ति तहह्म ही हो सकती है । अतः उस
सुकृतरूप प्रसिद्धिकी सत्ता होनेसे सुकृतप्रसिद्धेः । इतश्चास्ति । यह सिद्ध होता है कि वह ब्रह्म है।
ब्रह्म इसलिये भी है; किस लिये रसकृतः ? रसत्वात् । कुतो रसत्व
' वरूप होनेके कारण । ब्रह्मकी प्रसिद्धिह्मण इत्यत आह- रसखरूपताकी प्रसिद्धि किस कारण
से है-इसपर श्रुति कहती हैयद्वै तत्सुकृतम् । रसो वे जो भी वह प्रसिद्ध सुकृत है वह भागो सः । रसो नाम निथय रस ही है । खट्टा-मीठा साम्वरूपस्वम् उमिहतरानन्दकरो आदि तृप्तिदायक और आनन्दप्रद
| पदार्थ लोकमें 'रस' नामसे प्रसिद्ध मधुराम्लाद प्रासद्धा लोक है ही । इस रसको ही पाकर पुरुष रसमेवायं लब्ध्वा प्राप्यानन्दी आनन्दी अर्थात् सुखी हो जाता है। मुखी भवति । नासत आनन्दपनि
लोकमें किसी असत् पदार्यकी
| आनन्दहेतुता कभी नहीं देखी गयी। हेतुत्वं दृष्टं लोके । बाह्यानन्द- ब्रह्मनिष्ठ निरीह और निरपेक्ष विद्वान् साधनरहिताअप्यनीहा निरेपणा बाह्यसुखके साधनसे रहित होनेपर