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तैत्तिरीयोपनिषद्
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[वल्ली २]
ताद्यपेक्षत्वम् । किं तहि खात्म- नहीं होती। तो ब्रह्मकी कामनाएँ
कैती होती हैं ? वे खात्मासे नोऽनन्याः ।
अभिन्न होती हैं। तदेतदाह सोऽकामयत स उसीके विषयमें श्रुति कहती है
। उसने कामना की-उस आत्माने, ब्रह्मणो आत्मा यसादाकाशः
जिससे कि आकाश उत्पन्न हुआ पहुभवनसत्यः संभूतोऽकामयत है, कामना की । किस प्रकार कामितवान् । कथम् ? बहु स्यां कामना की ? मैं बहुत अधिक बहु प्रभूतं स्यां भवेयम् । कथमे
रो रूपमें हो जाऊँ अन्य पदार्थमें प्रवेश
किये बिना ही एक वस्तुकी बहुलता कस्वार्थान्तराननुप्रवेशे बहुत्वं कैसे हो सकती है ? इसपर कहते
हैं-'प्रजायेय' अर्थात् उत्पन्न होऊँ। स्थादित्युच्यते । प्रजायेयोत्पद्येय।।
यह ब्रह्मका बहुत होना पुत्रकी न हि पुत्रोत्पत्त्येवार्थान्तरविपयं उत्पत्तिके समान अन्य वस्तुविषयक बहुभवनम्, कथं तर्हि ? आत्म- नहीं है । तो फिर कैसा है ? अपने
|में अव्यक्तरूपसे स्थित नाम-रूपोंकी स्थानाभिव्यक्तनामरूपाभिव्य- अभिव्यक्तिके द्वारा ही [ यह अनेक क्त्या । यदात्मस्थे अनभि- | रूप होना है ] । जिस समय व्यक्त नामरूपे व्याक्रियेते तदा
आत्मामें स्थित अव्यक्त नाम और
रूपोंको व्यक्त किया जाता है उस नामरूपे आत्मस्वरूपापरित्यागे- समय वे अपने खरूपका त्याग किये नैव ब्रह्मणाप्रविभक्तदेशकाले
बिना ही समस्त अवस्थाओंमें ब्रह्मसे ..
अभिन्न देश और कालमें ही व्यक्त सविस्थासु व्याक्रियेते तदा किये जाते हैं। यह नाम-रूपका तन्नामरूपव्याकरणं ब्रह्मणो बहु
व्यक्त करना ही ब्रह्मका बहुत होना
है । इसके सिवा और किसी प्रकार भवनम् । नान्यथा निरवयवस्य ।
| निरवयव ब्रह्मका बहुत अथवा अल्प ब्रह्मणो वहुत्वापत्तिरुपपद्यतेऽल्प- होना सम्भव नहीं है, जिस प्रकार
।