Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 221
________________ २०६ तैत्तिरीयोपनिपद् [चल्ली ३ प्रतिपत्तेः । "मनसश्चेन्द्रियाणां ही है, क्योंकि ब्रह्मप्राप्ति उसीके च बैकारयं परमं तपः। द्वारा होनेवाली है । "मन और | इन्द्रियोंकी एकाग्रता ही परम तप तज्ज्यायः सर्वधर्मेस्यः स धर्मः है। वह सब धर्मोसे उत्कृष्ट है और । पर उच्यते" (महा० शा०२५०। वहीं वही परम धर्म कहा जाता है" इस ४) इति स्मृतेः । स च तपस्त- स्मृतिसे यही वात सिद्ध होती है । प्त्वा ॥१॥ | उस भृगुने तप करके-॥१॥ इति भृगुवल्ल्यां प्रथमोऽनुवाकः ॥१॥ द्वितीय अनुकाक अन्न ही ब्रह्म है-ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके उपदेशसे पुनः तप करना ।। अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् । अन्नाडय व खल्विमानि भूतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति । अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय । पुनरेव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । त५ होवाच । तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख । तपो ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा ॥१॥ अन्न ब्रह्म है-ऐसा जाना । क्योंकि निश्चय अन्नसे ही ये सव प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर अन्नसे ही जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करते समय अन्नमें ही लीन होते हैं। ऐसा जानकर वह फिर अपने पिता वरुणके पास आया [ और कहा-] 'भगवन् मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये ।' वरुणने उससे कहा-'ब्रह्मको तपके द्वारा जाननेकी

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