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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ.
सह नाववतु-नौ शिप्याचायौँ, 'सह नाववतु'-[वह ब्रह्म ] हम : सहैवाचतु रक्षतु । सह नौ भुनक्तु
आचार्य और शिष्य दोनोंकी साथ
साथ ही रक्षा करे और हमारा साथभोजयतु । सह वीर्य विद्यादि-साथ भरण अर्थात् पालन करे । हम निमित्तं सामर्थ्य करवावहै निर्वत- साथ-साथ वीर्य यानी विद्याजनित
सामर्थ्य सम्पादन करें; हम दोनों यावहै । तेजस्वि नावाचयोस्तेज
| तेजखियोंका अध्ययन किया हुआ स्विनोरधीतं स्वधीतमस्तु, अर्थ- तेजखी-सम्यक् प्रकारसे अध्ययन ज्ञानयोग्यमस्त्वित्यर्थः । मा
किया हुआ अर्थात् अर्थ-ज्ञानके योग्य
हो तथा हम विद्वेप न करें। विद्याविद्विपावहः विद्याग्रहणनिमित्तं ग्रहणके कारण शिष्य अथवा शिष्यस्याचार्यस्य वा प्रमादकृता- | आचार्यका प्रमादकृत अन्यायसे दन्यायाद्विद्वेषः प्राप्तस्तच्छमनाय
द्वेप हो सकता है; उसकी शान्तिके
लिये 'मा विद्विपावहै' ऐसी कामना इयमाशीर्मा विद्विपावहा इति ।
हा शत । की गयी है । तात्पर्य यह है कि मैंतरेतरं विद्वेपमापद्यावहै। हम एक-दूसरेके विद्वेपको प्राप्त न हों। शान्तिः शान्तिः शान्तिरिति 'शान्तिः शान्तिः शान्तिः' इस
प्रकार तीन बार 'शान्ति' शब्द त्रिर्वचनमुक्तार्थम् । वक्ष्यमाण
उच्चारण करनेका प्रयोजन पहले कहा विद्याविनप्रशमनार्था चेयं जा चुका है । यह शान्तिपाठ आगे
कही जानेवाली विद्याके विघ्नोंकी शान्तिः। अविनात्मविद्या- शान्तिके लिये है । इसके द्वारा प्राप्तिराशास्यते तन्मूलं हि परं
निर्विघ्नतापूर्वक आत्मविद्याकी प्राप्ति
की कामना की गयी है, क्योंकि वही श्रेय इति ।
| परम श्रेयका भी मूल कारण है । ।