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सप्तम अनुवाक
अनकी निन्दा न करनारूप व्रत तथा शरीर और प्राणरूप अन्नब्रह्मके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
अन्नं न निन्द्यात् । तद्वतम् । प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नसन्ने प्रतिष्ठितम् । स य एतन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति । महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥ १ ॥
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अन्नकी निन्दा न करे | यह ब्रह्मज्ञका व्रत है । प्राण ही अन्न है और शरीर अन्नाद है । प्राणमें शरीर स्थित है और शरीरमें प्राण स्थित है । इस प्रकार [ एक दूसरेके आश्रित होनेसे वे एक दूसरेके अन्न हैं; [ अतः ] ये दोनों अन्न ही अन्न में प्रतिष्ठित हैं । जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित ( प्रख्यात ) होता है, अन्नवान् और अन्नभोक्ता होता है । प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजके कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है ॥ १ ॥
विज्ञातं
किं चानेन द्वारभूतेन ब्रह्म | इसके सिवा क्योंकि द्वारभूत अन्नके द्वारा ही ब्रह्मको जाना है इसलिये गुरुके समान अन्नको भी निन्दा न करे । इस प्रकार ब्रह्म
यस्मात्तस्माद्गुरुमिच
अनं न निन्द्याचदस्यैवं त्रक्ष
ताके लिये यह व्रत उपदेश किया
विदो व्रतमुपदिश्यते | व्रतोप - | जाता है । यह व्रतका उपदेश