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अनु०७]
शाङ्करभाष्यार्थ
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न्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति । न तो और कुछ देखता है, न और
कुछ सुनता है और न और कुछ अन्यस्य ह्यन्यतो भयं भवति जानता ही है । अन्यको ही अन्यसे नात्मन एवात्मनो भयं युक्तम् ।
भय हुआ करता है, आत्मासे आत्मा
को भय होना सम्भव नहीं है। तस्मादात्मैवात्मनोऽभयकारणम्। अतः आत्मा ही आत्माके अभयका सर्वतो हि निर्भया ब्राह्मणा
कारण है । ब्राह्मण लोग ( ब्रह्मनिष्ठ
पुरुप) भयके कारणोंके रहते हुए दृश्यन्ते सत्सु भयहेतुपु तच्चा- भी सव ओरसे निर्भय दिखायी देते
हैं । किन्तु भयसे रक्षा करनेवाले युक्तमसति भयत्राणे ब्रह्माणि ।।
ब्रह्मके न होनेपर ऐसा होना तस्मात्तेपामभयदर्शनादस्ति तद- असम्भव था । अतः उन्हें निर्भय
देखनेसे यह सिद्ध होता है कि भयकारणं ब्रह्मेति ।
अभयका हेतुभूत ब्रह्म है ही। कदासावभयं गतो भवति यह साधक कब अभयको प्राप्त मेददर्शनमेव साधको यदा ना होता है ? [ ऐसा प्रश्न होनेपर भयहेतुः न्यत्पश्यत्यात्मनि ।
कहते हैं-] जिस समय यह अन्य
| कुछ नहीं देखता और अपने आत्मामें चान्तरं भेदं न कुरुते तदाभयं किसी प्रकारका अन्तर-भेद नहीं गतो भवतीत्यभिप्रायः । यदा
| करता उस समय ही यह अभयको
प्राप्त होता है-यह इसका तात्पर्य पुनरविद्यावस्थायां हि यस्मा
है। किन्तु जिस समय अविद्यावस्थादेपोऽविद्यावानविद्यया प्रत्युप- में यह अविद्याग्रस्त जीव तिमिररोगीस्थापितं वस्तु तैमिरिकद्वितीय- | को दिखायी देनेवाले दूसरे चन्द्रमाके
(समान अविद्याद्वारा प्रस्तुत किये हुए चन्द्रवत्पश्यत्यात्मनि चैतस्मिन्
पदार्थोको देखता है तथा इस आत्मा ब्रह्मणि उदपि, अरमल्पमप्यन्तरं यानी ब्रह्ममें थोड़ा-सा भी अन्तरछिद्रं भेददर्शनं कुरुते । भेददर्शन-छिद्र अर्थात् भेददर्शन करता है
तं वस्तु
तस्मिन् । पदाथा
थोड़ा-सा