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तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली १
सर्वेऽस्मै वलिमात्रहन्त्यङ्गश्ता अगभूत देवगण जिस प्रकार ब्रह्मको
उसी प्रकार इस अपने अङ्गीके लिये यथा ब्रह्मणे । आमोति !
उपहार लाते हैं । तथा वह मनस्पतिमनसस्पतिम् । सर्वेषां हि को प्राप्त हो जाता है । ब्रस सर्वात्मक मनसां पतिः सर्वात्मवाद- होनेके कारण सम्पूर्ण मनोंका पति
| है, वह सारे ही मनोद्वारा मनन ह्मणः । सबैर्हि मनोभिस्तन्मनुते।। करता है। इस प्रकार उपासनाद्वारा तदानोत्येवं विद्वान् । किं च वा
विद्वान् उसे प्राप्त कर लेता है । यही
नहीं, वह वाक्पति-सम्पूर्ण वाणियोंस्पतिः सर्वासांवाचांपतिर्भवति।।
का पति हो जाता है, तथा चक्षुतथैव चक्षुष्पतिश्चक्षुपां पतिः। पति-नेत्रोंका खामी, श्रोत्रपतिश्रोत्रपतिः श्रोत्राणां पतिः ।।
कानोंका स्वामी और विज्ञानपति
विज्ञानोंका खामी हो जाता है। विज्ञानपतिर्विज्ञानानां च पतिः।
तात्पर्य यह है कि सर्वात्मक होने सर्वात्मकत्वात्सर्वप्राणिनां करणे- कारण वह समस्त प्राणियोंकी स्तद्वान्भवतीत्यर्थः।
इन्द्रियोंसे इन्द्रियवान् होता है। किंच ततोऽप्यधिकतरमेतद्भ- यही नहीं, वह तो इससे भी बड़ा वति। किं तत् १ उच्यते।आकाश- हो जाता है । सो क्या? बतलाते
. . हैं-आकाशशरीर-आकाश जिसका शरीरमाकाशः शरीरमस्याकाश
" | शरीर है अथवा आकाशके समान वद्वा सूक्ष्म शरीरमस्येत्याकाश
| जिसका सूक्ष्म शरीर है वहीआकाशशरीरम् । किं तत् ? प्रकृतं ब्रह्म । शरीर है । वह है कौन ? प्रकृत सत्यात्म सत्यं मूर्तामूर्तमवितथं ब्रह्म [अर्थात् वह ब्रह्म जिसका यहाँ स्वरूपं चात्मा स्वभावोऽस्य तदिदं .
प्रकरण है ] । सत्यात्म-जिसका
मूर्तामूर्तरूप सत्य अर्थात् अमिध्या सत्यात्म । प्राणारामं प्राणेष्वा-है रात्यात्म' कहते हैं। प्राणाराम