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तैत्तिरीयोपनिपद
[बल्ली २
यथान्नमयः। सोऽयं प्राणमय-होनेके कारण ] अन्नमय कहा गया
है। वह इस प्राणमयका अन्तर्वर्ती स्थाम्यन्तर आत्मा । तस्य यजु- आत्मा है। उसका यजुः ही शिर रेच शिरः । यजुरित्यनियताक्षर- ' है । जिनमें अक्षरोंका कोई नियम
, नहीं है पैसे पादोंमें समाप्त होनेवाले पादावसानो मन्त्रविशपस्तजा मन्त्रविशेषका नाम यजुः है । उस तीयवचनो चजु शब्दस्तस्य , जातिले मन्त्रोंका वाचक 'यजुः'
_ शब्द है । उसे प्रधानताके कारण शिरस्त्वं प्राधान्याला प्राधान्यं च शिर कहा गया है। यागादिमें थामादौ संनिपत्योपकारकात्यात संनिपत्य उपकारक होनेके कारण
यजुः-मन्त्रोंशी प्रधानता है, क्योंकि यजुपा हि हनिदीयते स्वाहाका
खाहा आदिके द्वारा यजुर्मन्त्रोंसे ही रादिना।
हवि दी जाती है। वाचनिकी वा शिरआदि- अथवा इन सब प्रसंगोंमें शिर
आदिकी कल्पना श्रुतिवाक्यसे ही कल्पना सर्वत्र । सनसो हि सगझनी चाहिये । अक्षरोंके
[उच्चारण]स्थान,[आन्तरिक प्रयत्न, स्थानप्रयत्ननादस्वरवर्णपदवाक्य-/ [उससे उत्पन्न हुआ]नाद, उदात्तादि]
स्वर,अकारादि] वर्ण,[उनसे रचे हुए] विषया तत्संकल्पालिका | पद और पदोंके समूहरूप] वाक्यप्ते
सम्बन्ध रखनेवाली तथा उन्हींके तझाविता वृत्तिः श्रोत्रादिकरण- संकल्प और भावसे युक्त जो श्रवणादि
इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाली द्वारा यजुःसंकेतविशिष्टा यजुः | 'यजुः' संकेतविशिष्ट मनकी वृत्ति है
* यज्ञांग दो प्रकारके होते हैं-एक संनिपत्य उपकारक और दूसरे आरात् उपकारक । उनमें जो अङ्ग साक्षात् अथवा परम्परासे प्रधान यागक कलेवरकी पूर्ति कर उसके द्वारा अपूर्वकी उत्पत्तिमें उपयोगी होते हैं वे संनिपत्य उपकारक कहलाते हैं । यजुर्मन्त्र भी यागशरीरको निप्पन्न करनेवाले होनस संनिपत्य उपकारक हैं।