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अनु० ११ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
मान्तरके संस्काता गृहस्था
यतो जन्मान्तरकृतमप्यनिहोत्रा- | जन्मान्तरमें किया हुआ भी अग्निदिलक्षणं कर्म ब्रह्मचर्यादिलक्षणं | होत्रादि तथा ब्रह्मचर्यादिरूप कर्म
ज्ञानकी उत्पत्तिमें उपयोगी होता है, चानुग्राहकं भवति विद्योत्पत्ति
जिससे कि कोई लोग तो जन्मसे ही प्रति । येन जन्मनैव विरक्ता विरक्त देखे जाते हैं और कोई कर्ममें दृश्यन्ते केचित् । केचित्त कर्मसु | तत्पर, वैराग्यशून्य एवं ज्ञानके प्रवृत्ता अविरक्ता विद्याविद्वे
विरोधी दीख पड़ते हैं। अतः
जन्मान्तरके संस्कारोंके कारण जो पिणः । तस्माजन्मान्तरकृत-मित , जन्हें तो गहस्थाश्रमसे संस्कारेभ्यो विरक्तानामाश्रमा- भिन्न ] अन्य आश्रमोंको स्वीकार न्तरप्रतिपत्तिरेवेष्यते । करना ही इष्ट होता है। कर्मफलवाहुल्याच; पुत्रख
___ कर्मफलोंकी अधिकता होनेके
कारण भी [श्रुतिमें उनका कर्मविधी अतः गब्रह्मवर्चसादिलक्ष- विशेष विस्तार है ] । पुत्र, स्वर्ग एवं प्रयासप्रयोजनम् णस्य कर्मफलस्या- ब्रह्मतेज आदि कर्मफल असंख्येय संख्येयत्वात् , तत्प्रति च पुरुः
होनेके कारण और उनके लिये
पुरुपोंकी कामनाओंकी अधिकता पाणां कामबाहुल्यात्तदर्थः श्रुते- होनेसे भी कर्मोके प्रति श्रुतिका रधिको यत्नः कर्मसूपपद्यते ।।
अधिक यत्न होना उचित ही है,
क्योंकि 'मुझे यह मिले, मुझे यह आशिपां चाहुल्यदर्शनादिदं मे मिले' इस प्रकार कामनाओंकी स्यादिदं मे स्यादिति । बहुलता भी देखी ही जाती है । उपायत्वाच; उपायभूतानि |
| उपायरूप होनेके कारण भी
| [ श्रुतिका उनमें विशेष प्रयत्न है । हि कर्माणि विद्यां प्रतीत्यवो- कर्म ज्ञानोत्पत्तिमें उपायरूप हैं-ऐसा चाम । उपायेऽधिको यत्नः |
| हम पहले कह चुके हैं; तथा प्रयत्न
उपायमें ही अधिक करना चाहिये, कर्तव्यो नोपेये । | उपेयमें नहीं।